Thursday, January 12, 2017

दादी के जमाने के दस बर्तन जो अब किचन में कम दिखते हैं

किचन घर का वो हिस्सा जिसके इर्द गिर्द हमारा पूरा घर घूमता है और जहाँ दिन भर में एकाध बार सभी का आना जाना होता है |मैं भी कुछ अलग नहीं हूँ मेरा भी अपने घर की किचन में आना जाना होता ही रहता है पर इस ठिठुरती ठंड में इन दिनों किचन के चक्कर ज्यादा लग रहे हैं क्योंकि गर्म पानी शरीर को ज्यादा राहत देता है ऐसे ही एक दिन जब पानी गर्म करने के लिए मैं गैस का लाईटर खोज रहा है और इस चक्कर में किचन को कुछ ज्यादा ही करीब देखने का मौका लगा तो मैं भी खो गया अपने बचपन की यादों में ,जब किचन डिजाइनर नहीं बल्कि घर का एक पूजनीय हिस्सा हुआ करता था ,जहाँ बिना नहाये जाने पर पाबंदी थी |बासी खाना लुत्फ़ लेकर नाश्ते में “पीढ़े” पर बैठकर खाया जाता था ,डाईनिंग टेबल का नाम भी किसी ने नहीं सुना था|डबलरोटी (ब्रेड ) विलासिता थी  जिससे सेहत खराब होती थी , खाते वक्त बोलना असभ्यता की निशानी थी और माँ खाना बनाते न तो कभी थकती थी और न ही कभी यह कहती थी आज खाना बाहर से मंगवा लिया जाए |कहने को हम लखनऊ जैसे शहर में रहते थे पर वो शहर आज के शहर जैसा नहीं था ,गैस के चूल्हे आने शुरू ही हुए थे पर अंगीठी और चूल्हे से जुडी हुई चीजें अभी भी इस्तेमाल में थीं जिनके इर्द गिर्द हमारा बचपन बीता फिर धीरे –धीरे वो सब चीजें हमारे जैसी पीढी की यादों का हिस्सा बनती चली गयीं जैसे किचन में एक दुछत्ती का होना अब किचन में वार्डरोब होता है  |वो ज्वाईंट फैमली का जमाना था जब खाना बनाने में पूरे घर की महिलाएं लगती थी और बच्चों के लिए यह दौर किसी उत्सव से कम न होता था |अब तो लोग शायद उन्हें पहचान भी न पायें तो मैंने भी अपने बचपन के यादों के पिटारे के बहाने हमारे किचन से गायब हुई उन चीजों की लिस्ट बनाने की कोशिश की है जिनके बहाने ही सही उस पुराने दौर को एक बार फिर जी लिया जाए जो अब हमारे जीवन में दुबारा नहीं आने वाला है :

·         बटलोई या बटुली
 

 बटलोई एक ऐसा बर्तन हुआ करता था जिसमें सबसे ज्यादा दाल पकाई जाती थी गोलाकार नीचे से चपटी दाल पकने से दस मिनट पहले चूल्हे से उतार ली जाती थी और बटलोई की गर्मी से दाल अपने आप अगले दस मिनट में पक जाती थी तब भगोने उतने ज्यादा आम नहीं थे आमतौर पर बटुली कसकुट धातु से बनती थी |कसकुट एक ऐसी धातु है जो ताम्बे और जस्ते (एल्युमिनियम )के मिश्रण से बनती थी |अपनी बनावट में यह गगरी से मिलती जुलती थी पर इसका मुंह ज्यादा बड़ा होता था और तला अंडाकार चपटा होता था |गैस चूल्हे के आने से इनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी क्योंकि इनकी बनावट ऐसी थी जिसके कारण गैस पर इन्हें रखना मुश्किल होता था |दूसरा कारण स्टील का प्रयोग हमारे जीवन में बढना था जो सस्ता और ज्यादा टिकाऊ था |इस तरह बटुली हमारी यादों का हिस्सा बन गयी और अब रसोईघरों में नहीं दिखती |

·         संडसी

लोहे की बनी हुई बड़े मुंह वाली जो आकार में प्लास की बड़ी बहन लगती थी ,बटुली और बड़े आकार के गर्म बर्तनों को चूल्हे से उतारने के काम आती थी |अपनी बनवाट में यह बहुत पतली सी लोहे की वी आकार में होती थी पर मजबूत पकड़ के कारण बहुत काम की हुआ करती थी |अब ये रसोई घर में यह अमूमन स्टील की और छोटे आकार में मिलती है पर अब इसकी उतनी जरुरत नहीं पड़ती |
·         फुकनी
जब चूल्हे और अंगीठी का ज़माना था तब उनकी आग को बढाने के लिए आग को फूंकना पड़ता था जिसमें दफ्ती से लेकर कागज का इस्तेमाल होता था इसी काम को व्यवस्थित तरीके से करने के लिए फूंकनी का यूज किया जाता था |ठोस लोहे की बनी फूंकनी आकार में बांसुरी की तरह होती थी जो दोनों और से खुली होती थी एक तरफ से फूंका जाता था दूसरी तरफ से फूंक आग में जाती थी |अब यह लुप्त प्राय श्रेणी में है शहरों में ||

·         मर्तबान

अचार रखने केलिए खासकर इनका प्रयोग होता था चीनी मिट्टी के बने ये मर्तबान किचन का अहम् हिस्सा थे जिनमें तरह तरह के अचार रखे जाते थे |नीचे से सफ़ेद और ऊपर ज्यादातर पीले या काले रंग के छोटे बड़े और मंझोले आकार के चीनी मिट्टी के ऐसे प्यालों में तीज त्योहार के समय दही बड़े और ऐसे पकवान रखे जाते थे जिनमें तरल ज्यादा होता था |बड़े सलीके से इन्हें किचन में बनें ताखे से उतारना पड़ता था |लाईफ जैसे जैसे फास्ट होती गयी इनकी यूटीलटी कम होती गयी इनकी जगह प्लास्टिक और स्टील से बने मर्तबानों ने ले ली जिनका मेंटीनेंस आसान और कीमत कम थी |भागती दौडती जिन्दगी ने कभी हमारी जिन्दगी का अहम हिस्सा रहे इन  मर्तबानों को हमारी जिन्दगी से अलग कर दिया |

·         सूप


गूगल पर अगर आप सूप खोजने की कोशिश करेंगे तो आपको तरह –तरह के सूप बनाने की विधी बता देगा अपर वो सूप कभी नहीं दिखाएगा जिस सूप की बात यहाँ की जा रही है |सरपत की पतली बालियों से बन कर बना यह देशी यंत्र एक वक्त में हमारी रसोई का इम्पोर्टेंट टूल था जिसका इस्तेमाल  तरह –तरह के अनाजों को साफ़ करने के लिए किया जाता है जिसे अवधी में पछोरना कहते हैं |सूप में अनाज को भर कर धीरे –धीरे एक विशेष प्रकार से उसे हवा में उछाला जाता था और सूप के नीचे आने पर हाथ से धीरे से थाप दी जाती थी |सूप का इस्तेमाल करना भी एक कला हुआ करती थी |हर कोई सूप का इस्तेमाल नहीं कर सकता है |अनाज सूप में रह जाता था और गंदगी बाहर आ जाती थी |अब शादी या किसी शुभ अवसर पर इसकी जरुरत पड़ती है क्योंकि यह हमारी परम्पराओं का हिस्सा रहा है पर इसे शहर की किचन में खोजना मुश्किल है |

·         खल मूसल

इसका एक और प्रचलित नाम इमाम दस्ता भी है जो तरह –तरह के खड़े मसालों को पीसने के काम में आता था अभी भी मांसाहार बनाते वक्त इनकी याद आती है जब खड़े मसालों का इस्तेमाल किया जाता है |मिक्सी और पिसे मसलों के बाजार में आ जाने से इनके प्रयोग की जरुरत नहीं पड़ती और किचन से यह धीरे से गायब हो गए यह लोहे और लकड़ी के हुआ करते थे |खल एक गोल जार जैसा होता था जिसमें मसाले डाल दिए जाते थे और मूसल एक डंडा नुमा आकृति थी जिससे मसालों पर लगातार  चोट की जाती थी और धीरे –धीरे मसाले पाउडर जैसे हो जाते थे |खल और मूसल में जब मसाले कूटे जा रहे होते तो एक विचित्र तरह की आवाज निकलती थी जो इस बात का सूचक थी आज कुछ चटपटा मसालेदार घर की किचन में बनने वाला है |

·         सिल बट्टा

जब बात चटनी की हो तो सिल बट्टा के बगैर हमारी यादों की ये कहानी पूरी नहीं हो सकती पत्थर की सिल पर बट्टे से मसाले और चटनी पीसी जाती थी |आप सब कुछ अपने सामने देख सकते थे कि किस तरह फल पत्ती और मसाले एक भोज्य पदार्थ का रूप ले रहे होते ,पर समय की कमी और मिक्सी की सुलभता से अब सब काम मिनटों में हो जाता है और किसी को कुछ पता भी नहीं पड़ता कि बिजली के जोर ने बंद डिब्बे के भीतर कैसे सबको मिला दिया |तब जिन्दगी का लुत्फ़ लिया जाता था आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए आज को खो नहीं दिया जाता था |धीरे –धीरे चटनी मसाले एक दुसरे में मिलते थे यूँ समझ लीजिये हौले हौले जिन्दगी का एक रंग दुसरे रंग से मिलता था और बनता था जिन्दगी का एक नया रंग जिसमें मेहनत की अहम् भूमिका हुआ करती थी |

·         कद्दूकस 

इसका नाम कद्दूकस क्यों पडा इस प्रश्न का जवाब मुझे आज तक नहीं मिला क्योंकि इस कद्दूकस में मैंने कभी कद्दू का इस्तेमाल होते नहीं देखा |इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल जाड़ों के दिनों में गाजर का हलुवा बनाने के लिए गाजर को कसते जरुर देखा |मुली दूसरी सब्जी रही जिसको खाने के लिए कद्दूकस का इस्तेमाल होता था |एक चारपाई आकार का मोडल जिसमें अगर कोई चीज घिसी जाए तो उसके रेशे नीचे गिरते थे सलाद बनाने में और गरी को घिसने में भी खूब इस्तेमाल हुआ पर अब किसी के पास समय कहाँ हैं जब चीजों को घटते हुए देखा जाए अब तो इंस्टेंट का दौर है जो भी हो बस जल्दी हो आउटकम पर ज्यादा जोर है प्रोसेस पर कम नतीजा किचन से एक और परम्परागत यंत्र का गायब हो जाना |

·         फूल की थाली

फूल एक धातु का नाम है जो ताम्बे और जस्ते के मिश्रण से बनती थी स्टील तब इतना लोकप्रिय नहीं हुआ था |समाज का माध्यम वर्ग ज्यादतर अपने घरों में फूल के बर्तन इस्तेमाल करता था जिसमें लोटा, गिलास, कटोरा, थारा, परात, बटुली-बटुला, गगरा, करछुल, कड़ाही जैसी चीजें शामिल हुआ करती थीं |निम्न वर्ग एल्युमिनियम के बर्तनों का इस्तेमाल ज्यादा करता था पर अब इन सब धातुओं की जगह स्टील ने ले ली है |
·         राख और पत्थर
कभी हमारे रसोई की कल्पना राख और पत्थर के बगैर हो ही नहीं सकती थी राख की जगह आजकल विम् बार ने ले ली है और पत्थर से अब बर्तन मांजे नहीं जाते कारण गैस का आ जाना और बर्तन अबी ज्यादतर स्टील के होतेहैं जिनकी सफाई में अब ज्यादा मेहनत नहीं लगती |
भारत के शहरी रसोई घरों में समय का एक पूरा पहिया घूम चुका है और इसमें कुछ भी बुरा नहीं जो आज नया है कल किसी और की यादों का हिस्सा होगा रसोई घर के बहाने ही सही मैंने अपनी यादें सहेज लीं |

Wednesday, January 11, 2017

ई -वॉलेट को मिल पायेगा वो भरोसा !

इंटरनेट एक विचार के तौर पर सूचनाओं को साझा करने के सिलसिले के साथ शुरू हुआ था चैटिंग और ई मेल से यह हमारे जीवन में जगह बनाता गया फिर ओनलाईन शॉपिंग ने खेल के सारे मानक बदल दिए पर  भारत में इस सूचना क्रांति के अगुवा बने स्मार्टफोन जिन्होंने मोबाईल एप  और ई वालेट के जरिये पर्स में पैसे रखने के चलन को हतोसाहित करना शुरू किया |आज सरकार भी यह चाहती है कि लोग पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन को बढ़ावा दे रही है जिससे काले धन पैदा होने की संभावना को समाप्त किया जा सके और नोट छापने के अनावश्यक खर्च से बचा जा सके |टफ्ट्स विश्वविद्यालय के  प्रकाशन कॉस्ट ऑफ़ कैश इन इण्डियाके आंकड़ों के अनुसार भारत नोट छापने और उनके प्रबन्धन के लिए सालाना इक्कीस हजार करोड़ रुपये खर्च  करता है एक हजार और पांच सौ रुपये के पुराने एक नोट छापने में रिजर्व बैंक ऑफ़ इण्डिया को क्रमशःदो रुपये पचास पैसे और तीन रुपये सत्रह पैसे खर्च करने पड़ते थे |मूडीज की रिपोर्ट के अनुसार साल 2011से 2105 तक ई भुगतान ने देश की अर्थव्यवस्था में 6.08 बिलियन डॉलर  का इजाफा किया है|मैकिन्सी ने अपनी एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन के बढ़ने से साल 2025 तक देश की अर्थव्यवस्था में 11.8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होगी |आंकड़े आने वाले कल की सुनहरी उम्मीद जगाते हैं पर ये मामला मानवीय व्यवहार से जुड़ा है जिसके बदलने में वक्त लगेगा | भारतीय परिस्थितियों में मौद्रिक लेन देन विश्वास से जुड़ा मामला भी है जब हम जिसे पैसा दे रहे हैं वो हमारे सामने होता है जिससे एक तरह का भरोसा जगता है |
पर महज स्मार्ट फोन प्रयोगकर्ताओं की संख्या बढ़ने से लोग डिजीटल लेन-देन की तरफ बढ़ेंगे ऐसा वर्तमान परिस्थतियों में सम्भव नहीं दिखता और डिजीटल लेन-देन की अपनी समस्याएँ हैं | मार्च 2016 तक भारत में 342.46 मिलीयन इंटरनेट प्रयोगकर्ता है जो कुल आबादी का मात्र का छब्बीस प्रतिशत हैं |ऑनलाइन उपभोक्ता अधिकार जैसे मुद्दों पर न तो कोई जागरूकता है न ही सार्थक कानून ई वालेट प्रयोग  और ऑन लाइन खरीददारी उपयोगिता के तौर पर बहुत लाभदायक है पर किन्ही कारणों से आपको खरीदा सामान वापस करना पड़ा या खराब उत्पाद मिल गया और उपभोक्ता अपना पैसा वापस चाहता है तो  अनुभव यह बताता है कि उसे पाने में तीन से दस  दिन तक का समय लगता है और इस अवधि में उस धन पर डिजीटल प्रयोगकर्ता को कोई ब्याज नहीं मिलता और  यह एक लम्बी थकाऊ प्रक्रिया है जिसमें अपने पैसे की वापसी के लिए बैंक और ओनलाईन शौपिंग कम्पनी के कस्टमर केयर पर बार बार फोन करना पड़ता है |कई बार कम्पनियां पैसा नगद न वापस कर अपनी खरीद बढ़ाने के लिए गिफ्ट कूपन जैसी योजनायें जबरदस्ती उपभोक्ताओं के माथे मढ देती हैं और ऐसी परिस्थितियों में उत्पन्न हुई समस्या के समयबद्ध निपटारे की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है |जेब में पैसा होना एक तरह का आत्मविश्वास देता है |क्या वह विश्वास   जेब में पड़ा मोबाईल ई वालेट या डेबिट /क्रेडिट कार्ड दे पायेगा जहाँ  देश  में डिजीटल लेन-देन अभी विकसित देशों के मुकाबले उतनी ज्यादा मात्रा में नहीं हो रहा है फिर भी सर्वर बैठने की समस्या से उपभोक्ताओं को अक्सर दो चार होना  पड़ता है |मोबाईल का नेटवर्क हवा के झोंके के साथ आता जाता रहता है |बैंक से पैसा निकल जाता है और सम्बन्धित कम्पनी तक नहीं पहुँचता फिर उसके वापस आने का इन्तजार | राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक साल 2011 से 2015 के बीच भारत में साइबर अपराध की संख्या में तीन सौ पचास प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिनमे बड़ी संख्या में आर्थिक  साइबर अपराध  भी शामिल हैं जागरूकता में कमी के कारण आमतौर पर जब उपभोक्ता ऑनलाईन धोखाधड़ी का शिकार होता है तो उसे समझ ही नहीं आता वो क्या करे| ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब जितनी जल्दी मिलेगा लोग उतनी तेजी से इलेक्ट्रौनिक ट्रांसेक्शन की तरफ बढ़ेंगे |देश की बड़ी आबादी अशिक्षित और निर्धन है वो आने वाले वक्त में कितनी बड़ी मात्रा में  डिजीटल लेन देन करेगी यह उस व्यवस्था पर निर्भर करेगा जहाँ लोग पैसा खर्च करते उसी निश्चिंतता और भरोसे को पा सकें जो उन्हें कागजी मुद्रा के लेन देन करते वक्त प्राप्त होती है  |
नवोदय टाईम्स में 11/01/17 को प्रकाशित 

Saturday, January 7, 2017

इंटरनेट पर कमज़ोर क्यों है आवाज की ताकत

तस्वीरों की दौड़ में हमने आवाज को लगभग भुला ही दिया है। स्मार्टफोन ने देश में इंटरनेट प्रयोग के आयाम जरूर बदले हैं और इसके साथ सोशल नेटवर्किंग ने हमारे संवाद व मेल-मिलाप का तरीका भी बदल दिया है। इसमें यू-ट्यूब और फेसबुक लाइव जैसे फीचर बहुत लोकप्रिय हुए हैं। इन सबके साथ हमने इंटरनेट को वीडियो का ही माध्यम समझ लिया है और ऑडियो यानी ध्वनि को नजरंदाज कर दिया गया है। भारत में अगर आप अपने विचार अपनी आवाज के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं, तो आपको इंटरनेट पर खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। व्यवसाय के रूप में जहां यू-ट्यूब के वीडियो चैनल भारत में काफी लोकप्रिय हैं, वहीं ध्वनि का माध्यम अभी जड़ें जमा नहीं पाया है, जबकि बाकी दुनिया में ऑडियो का चलन काफी तेजी से बढ़ रहा है।
इंटरनेट पर ऑडियो फाइल को शेयर करना पॉडकास्ट के नाम से जाना जाता है। पॉडकास्ट दो शब्दों से मिलकर बना है, प्लेयेबल ऑन डिमांड (पॉड) और ब्रॉडकास्ट से। नीमन लैब के एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2016 में अमेरिका में पॉडकास्ट (इंटरनेट पर ध्वनि के माध्यम से विचार या सूचना देना) के उपयोगकर्ताओं यानी श्रोताओं की संख्या में काफी तेजी से इजाफा हुआ है। वहां इस माध्यम पर विज्ञापनों द्वारा होने वाली कमाई में पिछले वर्ष लगभग 48 प्रतिशत का इजाफा हुआ है और वर्ष 2020 तक इसके लगातार 25 प्रतिशत की दर से वृद्धि करने की उम्मीद है। इस वृद्धि दर से वर्ष 2020 तक पॉडकास्टिंग से होने वाली आमदनी पांच सौ मिलियन डॉलर के करीब पहुंच जाएगी। पॉडकास्टिंग की शुरुआत हालांकि एक छोटे माध्यम के रूप में हुई थी, पर अब यह एक संपूर्ण डिजिटल उद्योग का रूप धारण करता जा रहा है। अमेरिका की सबसे बड़ी पॉडकास्टिंग कंपनी एनपीआर की सालाना आमदनी लगभग दस मिलियन डॉलर के करीब है। भारत में पॉडकास्टिंग के जड़ें न जमा पाने के कारण हैं ध्वनि के रूप में सिर्फ फिल्मी गाने सुनने की परंपरा और श्रव्य की अन्य विधाओं से परिचित ही नहीं हो पाना। इसके अलावा भारत में ज्यादातर एफएम स्टेशन एक जैसी ही सामग्री श्रोताओं को परोसते हैं। उन्हें समाचार प्रसारण का अधिकार भी नहीं प्राप्त है, जबकि पॉडकास्टिंग को मीडिया के श्रव्य विकल्प के रूप में देखने की आवश्यकता है। भारत जैसे देशों में, जहां इंटरनेट की स्पीड काफी कम होती है, वीडियो के मुकाबले पॉडकास्टिंग ज्यादा कामयाब हो सकती है।
इस वक्त भारत में दो प्रमुख पॉडकास्ट सेवाएं नियमित रूप से प्रसारित की जा रही हैं, जिनमें इंडसवॉक्स और ऑडियोमैटिक काफी लोकप्रिय हैं, पर ये भारतीय भाषाओं में नहीं हैं। ऑडियोमैटिक ने अपनी शुरुआत के एक साल में एक लाख नियमित श्रोता जुटा लिए हैं। इंडसवॉक्स म्यूजिक स्ट्रीमिंग साइट सावन पर उपलब्ध है। स्मार्टफोन की उपलब्धता के अनुपात में इनके श्रोता अभी काफी कम हैं। शहरी भारत में औसत रूप से एक व्यक्ति 46 मिनट सफर करता है और यह समय लगातार बढ़ रहा है। इस समय उसके पास आमतौर पर कुछ सुन सकने का ही विकल्प होता है। संगीत (ज्यादातर फिल्मी) के अलावा अन्य सामग्री उपलब्ध नहीं होती है, इसलिए वह केवल संगीत सुनने को ही मजबूर होता है।
भारत के मामले में एक बात तय मानी जाती है कि पॉडकास्टिंग यहां विज्ञापन आधारित ही होगी। कुछ भी मनपसंद सुनने के लिए पैसे खर्च करने की परंपरा यहां नहीं है। एफएम चैनल चलाने वाली कंपनियां लंबे समय से कोशिश कर रही हैं कि सरकार से उन्हें समाचार व करेंट अफेयर्स के कार्यक्रम प्रसारित करने की इजाजत मिले। लेकिन सरकार उन्हें यह इजाजत नहीं दे रही। इन कंपनियों के लिए पॉडकास्टिंग एक ज्यादा अच्छा विकल्प हो सकती है। भारत जैसे देश में ऑडियो व्यवसाय के लिए संभावनाएं कितनी हैं, इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि एक समय तक पड़ोसी नेपाल में निजी क्षेत्र को एफएच चैनल चलाने की इजाजत नहीं थी। वहां उन्हें न सिर्फ इसकी इजाजत मिली, बल्कि एफएम पर समाचार के प्रसारण का अधिकार भी मिल गया। आज नेपाल में सैकड़ों एफएम चैनल हैं और ज्यादातर सफल हैं। भारत इस मंजिल को पॉडकास्टिंग के जरिये भी पा सकता है।
हिन्दुस्तान में 07/01/2016 में प्रकाशित 

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