Monday, September 28, 2015

डिजिटल लत से बढ़ता मनोरोग का खतरा

डिजिटल इंडिया के बढ़ते कदमों के साथ यह चर्चा भी देश भर में आम है कि स्मार्टफोन व इंटरनेट लोगों को व्यसनी बना रहा है। कहा जाता है कि मानव सभ्यता शायद पहली बार एक ऐसे नशे से सामना कर रही है, जो न खाया जा सकता है, न पिया जा सकता है, और न ही सूंघा जा सकता है। चीन के शंघाई मेंटल हेल्थ सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिक, इंटरनेट की लत शराब और कोकीन की लत से होने वाले स्नायविक बदलाव पैदा कर सकती है। वी आर सोशल की डिजिटल सोशल ऐंड मोबाइल 2015 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं के आंकड़े काफी कुछ कहते हैं। इसके अनुसार, एक भारतीय औसतन पांच घंटे चार मिनट कंप्यूटर या टैबलेट पर इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। इंटरनेट पर एक घंटा 58 मिनट, सोशल मीडिया पर दो घंटे 31 मिनट के अलावा इनके मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल की औसत दैनिक अवधि है दो घंटे 24 मिनट। इसी का नतीजा हैं तरह-तरह की नई मानसिक समस्याएं- जैसे फोमो, यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट, सोशल मीडिया पर अकेले हो जाने का डर। इसी तरह फैड, यानी फेसबुक एडिक्शन डिसऑर्डर। इसमें एक शख्स लगातार अपनी तस्वीरें पोस्ट करता है और दोस्तों की पोस्ट का इंतजार करता रहता है। एक अन्य रोग में रोगी पांच घंटे से ज्यादा वक्त सेल्फी लेने में ही नष्ट कर देता है। इस वक्त भारत में 97.8 करोड़ मोबाइल और 14 करोड़ स्मार्टफोन कनेक्शन हैं, जिनमें से 24.3 करोड़  इंटरनेट पर सक्रिय हैं और 11.8 करोड़ सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। 
लोगों में डिजिटल तकनीक के प्रयोग करने की वजह बदल रही है। शहर फैल रहे हैं और इंसान पाने में सिमट रहा है।नतीजतन, हमेशा लोगों से जुड़े रहने की चाह उसे साइबर जंगल की एक ऐसी दुनिया में ले जाती है, जहां भटकने का खतरा लगातार बना रहता है। भारत जैसे देश में समस्या यह है कि यहां तकनीक पहले आ रही है, और उनके प्रयोग के मानक बाद में गढ़े जा रहे हैं। कैस्परस्की लैब द्वारा इस वर्ष किए गए एक शोध में पाया गया है कि करीब 73 फीसदी युवा डिजिटल लत के शिकार हैं, जो किसी न किसी इंटरनेट प्लेटफॉर्म से अपने आप को जोड़े रहते हैं। वर्चुअल दुनिया में खोए रहने वाले के लिए सब कुछ लाइक्स व कमेंट से तय होता है। वास्तविक जिंदगी की असली समस्याओं से वे भागना चाहते हैं और इस चक्कर में वे इंटरनेट पर ज्यादा समय बिताने लगते हैं, जिसमें चैटिंग और ऑनलाइन गेम खेलना शामिल हैं। और जब उन्हें इंटरनेट नहीं मिलता, तो उन्हें बेचैनी होती और स्वभाव में आक्रामकता आ जाती है। इससे निपटने का एक तरीका यह है कि चीन से सबक लेते हुए भारत में डिजिटल डीटॉक्स यानी नशामुक्ति केंद्र खोले जाएं और इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलाई जाए। 


हिंदुस्तान में 28/09/15 को प्रकाशित 

Friday, September 18, 2015

सास -बहू धारावाहिकों के लिए खतरे की घंटी

टीवी पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों के कारोबार की अगली कड़ी ज्यादा दिलचस्प होने वाली है। धारावाहिकों की दुनिया अभी तक सूचना तकनीक के बदलावों से अछूती है। हमारी दुनिया में जितनी तेजी से सब कुछ बदला है, उतनी तेजी से टीवी धारावाहिक नहीं बदले। सास-बहू को देखने की हमारी मजबूरी पहले जैसी ही बनी रही। शायद इसलिए कि इन धारावाहिकों के सामने किसी और विजुअल माध्यम की कोई चुनौती नहीं थी। दर्शकों को जो दिखाया जा रहा था, उसे देखने का कोई विकल्प न था। लेकिन अब इंटरनेट ने इन धारावाहिकों को चुनौती देना शुरू कर दिया है।

इंटरनेट के लिए ही धारावाहिक बनाने वाले द वाइरल फीवर  के टीवीएफ को इंटरनेट मूवी डाटाबेस (आईएमडीबी) की दुनिया के 250 धारावाहिकों में जगह दी है। आईएमडीबी दुनिया भर के टीवी शो को दर्शकों के वोट के आधार पर रेटिंग देता है। टीवीएफ को अमेरिका के प्रमुख इंटरनेट धारावाहिकों द डेली शो, सूट्स आदि के मुकाबले 43वां स्थान मिला। दुनिया भर में ऐसे धारावाहिकों के निर्माण में तेजी आई है, जो टीवी नहीं, इंटरनेट पर आते हैं। इसकी शुरुआत साल 1992 में अमेरिका के साउथ पार्क  के साथ हुई थी, यह चलन अब भारत में भी जोर पकड़ रहा है। सही मायने में इंटरनेट धारावाहिकों के लिए भारत में यह सही वक्त भी है। पिछले कुछ साल में टीवी देखने का ढर्रा काफी बदला है। दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आबादी वाले देश के दर्शकों की मांग को पूरा करने के लिए ज्यादातर पारिवारिक कहानियां हैं, जिनमें युवाओं की कोई रुचि नहीं। वैसे भी आजकल कम से कम शहरों में पूरा परिवार एक साथ बैठकर टीवी नहीं देखता। स्माार्टफोन और कंप्यूटर ने हमारी इन आदतों को बदल दिया है। नई पीढ़ी की दुनिया अब मोबाइल और लैपटॉप में है, जो अपना ज्यादा वक्त इन्हीं साधनों पर बिताते हैं। जहां कोई कभी भी अपने समय के हिसाब से इन धारावाहिकों को देख सकता है। इंटरनेट के धारावाहिक कंटेंट के स्तर पर युवाओं की आशा और अपेक्षाओं की पूर्ति करते हुए नवाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। पिचर्स की हर कड़ी को लगभग डेढ़ करोड़ बार देखा गया है, जिसके और बढ़ने की संभावना है।

हालांकि इसके बावजूद इंटरनेट धारावाहिकों का उस गति से विस्तार नहीं हो पा रहा है, जिस गति से होना चाहिए। इसका बड़ा कारण यह है कि इससे कमाई का कोई निश्चित मॉडल अभी नहीं उभर सका है, विज्ञापनों का बड़ा हिस्सा अभी भी टेलीविजन की झोली में चला जाता है। इंटरनेट धारावाहिक के निर्माता स्पॉन्सर का जुगाड़ करके अपना शो तैयार करते हैं। फिर ये अभी बड़े शहरों तक ही सीमित हैं और इंटरनेट की धीमी गति के चलते इन्हें देखना कोई बहुत अच्छा अनुभव भी नहीं होता। लेकिन इस सब को शुरुआती बाधाएं माना जा रहा है, हकीकत यही है कि टीवी निर्माताओं के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है।
हिन्दुस्तान में 18/09/15 को प्रकाशित लेख 

Sunday, September 13, 2015

वर्णमाला से बाहर होते ग्रामीण

 
शिक्षा एक ऐसा पैमाना है जिससे कहीं हुए विकास को समझा जा सकता है ,शिक्षा जहाँ जागरूकता लाती है वहीं मानव संसाधन को भी विकसित करती है |इस मायने में शिक्षा की हालत गाँवों में ज्यादा खराब है |वैसे गाँव की चिंता सबको है आखिर भारत गाँवों का देश है पर क्या सचमुच गाँव शहर  जा रहा है और शहर का बाजार गाँव में नहीं  आ रहा है नतीजा गाँव की दशा आज भी वैसी है जैसी आज से चालीस- पचास साल पहले हुआ करती थी सच ये है कि भारत के गाँव आज एक दोराहे पर खड़े हैं एक तरफ शहरों की चकाचौंध दूसरी तरफ अपनी मौलिकता को बचाए रखने की जदोजहदपरिणामस्वरुप  भारत में ग्रामीण अनपढ़ लोगों की संख्या घटने की बजाय बढ़ रही है|पिछले 2011 के जनगणना के आंकड़ों के मुकाबले भारतीय ग्रामीण निरक्षरों की संख्या में 8.6 करोड़ की और बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है|ये आंकड़े सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना (सोशियो इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस- एसईसीसी) ने जुटाए हैं|महत्वपूर्ण  है कि एसईसीसी ने 2011 में 31.57 करोड़ ग्रामीण भारतीयों की निरक्षर के रूप में गिनती की थीउस समय यह संख्या दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा थी|ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़, 2011 में निरक्षर भारतीयों की संख्या 32.23 प्रतिशत थी जबकि अब उनकी संख्या बढ़कर 35.73 प्रतिशत हो गई है|साक्षरों के मामले में राजस्थान की स्थिति सबसे बुरी है यहां 47.58 (2.58 करोड़) लोग निरक्षर हैं|इसके बाद नंबर आता है मध्यप्रदेश का जहां निरक्षर आबादी की संख्या 44.19 या 2.28 करोड़ है.बिहार में निरक्षरों की संख्या कुल आबादी का 43.85 प्रतिशत (4.29 करोड़) और तेलंगाना में 40.42 प्रतिशत (95 लाख) है|गाँवों में निरक्षरता के बढ़ने के कई आयाम हैंगाँव की पहचान उसके खेत और खलिहानों और स्वच्छ पर्यावरण से है पर खेत अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं भारत के विकास मोडल की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह गाँवों को आत्मनिर्भर बनाये रखते हुए उनकी विशिष्टता को बचा पाने मे असमर्थ रहा है यहाँ विकास का मतलब गाँवों को आत्मनिर्भर न बना कर उनका शहरीकरण कर देना भर रहा है|विकास की इस आपाधापी में सबसे बड़ा नुक्सान खेती को हुआ है |
                      भारत के गाँव हरितक्रांति और वैश्वीकरण से मिले अवसरों के बावजूद खेती को एक सम्मानजनक व्यवसाय के रूप में स्थापित नहीं कर पाए|इस धारणा का परिणाम यह हुआ कि छोटी जोतों में उधमशीलता और नवाचारी प्रयोगों के लिए कोई जगह नहीं बची और खेती एक बोरिंग प्रोफेशन का हिस्सा बन भर रह गयी|गाँव खाली होते गए और शहर भरते गए|इस तथ्य को समझने के लिए किसी शोध को उद्घृत करने की जरुरत नहीं है गाँव में वही युवा बचे हैं जो पढ़ने शहर नहीं जा पाए या जिनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं हैदूसरा ये मान लिया गया कि खेती एक लो प्रोफाईल प्रोफेशन है जिसमे कोई ग्लैमर नहीं है |शिक्षा रोजगार परक हो चली है और गाँवों में रोजगार है नहीं नतीजा गाँव में शिक्षा की बुरी हालत|
                        सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून तो लागू कर दिया हैलेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यानि ग्रामीण सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारने पर अब तक न तो केंद्र ने ध्यान दिया है और न ही राज्य सरकारों नेग्रामीण इलाकों में स्थित ऐसे स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं हैजो मौलिक सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमी से जूझ रहे हैंइन स्कूलों में शिक्षकों की तादाद एक तो जरूरत के मुकाबले बहुत कम है और जो हैं भी वो पूर्णता प्रशिक्षित  नहीं हैज्यादातर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों और छात्रों का अनुपात बहुत ऊंचा है. कई स्कूलों में 50 छात्रों पर एक शिक्षक है|यही नहींसरकारी स्कूलों में एक ही शिक्षक विज्ञान और गणित से लेकर इतिहास और भूगोल तक पढ़ाता है. इससे वहां पठन-पाठन के स्तर का अंदाजा  लगाना मुश्किल नहीं हैजहाँ स्कूलों में न तो शौचालय है और न ही खेल का मैदान
अमर उजाला में 13/09/15 को प्रकाशित 

Monday, September 7, 2015

ग्लोबल से लोकल बनता इंटरनेट

इंटरनेट शुरुवात में किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह एक ऐसा आविष्कार बनेगा जिससे मानव सभ्यता का चेहरा हमेशा के लिए बदल जाएगा | आग और पहिया के बाद इंटरनेट ही वह क्रांतिकारी कारक जिससे मानव सभ्यता के विकास को चमत्कारिक गति मिली|इंटरनेट के विस्तार के साथ ही इसका व्यवसायिक पक्ष भी विकसित होना शुरू हो गया|प्रारंभ में इसका विस्तार विकसित देशों के पक्ष में ज्यादा पर जैसे जैसे तकनीक विकास होता गया इंटरनेट ने विकासशील देशों की और रुख करना शुरू किया और नयी नयी सेवाएँ इससे जुडती चली गयीं  |
इंटरनेट एंड मोबाईल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया की नयी रिपोर्ट के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओँ के प्रयोगकर्ता सैंतालीस प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं जिनकी संख्या संख्या साल 2015 के अंत तक 127 मिलीयन हो जाने  की उम्मीद है भारत सही मायने में कन्वर्जेंस की अवधारणा को साकार होते हुए देख रहा हैजिसका असर तकनीक के हर क्षेत्र में दिख रहा है। इंटरनेट मुख्यता कंप्यूटर आधारित तकनीक रही है पर स्मार्ट फोन के आगमन के साथ ही यह धारणा तेजी से ख़त्म होने लग गयी और जिस तेजी से मोबाईल पर इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है वह साफ़ इशारा कर रहा है की भविष्य में इंटरनेट आधारित सेवाएँ कंप्यूटर नहीं बल्कि मोबाईल को ध्यान में रखकर उपलब्ध कराई जायेंगी|हिंदी को शामिल करते हुए इस समय इंटरनेट की दुनिया बंगाली ,तमिलकन्नड़ ,मराठी ,ड़िया , गुजराती ,मलयालम ,पंजाबीसंस्कृत,  उर्दू  और तेलुगु जैसी भारतीय भाषाओं में काम करने की सुविधा देती है आज से दस वर्ष पूर्व ऐसा सोचना भी गलत माना जा सकता था पर इस अन्वेषण के पीछे भारतीय इंटरनेट उपभोक्ताओं के बड़े आकार का दबाव काम कर रहा था भारत जैसे देश में यह बड़ा अवसर है जहाँ मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या विश्व में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा है । इंटरनेट  हमारी जिंदगी को सरल बनाता है और ऐसा करने में गूगल का बहुत बड़ा योगदान है। आज एक किसान भी सभी नवीनतम तकनीकों को अपना रहे हैंऔर उन्हें सीख भी  रहे हैंलेकिन इन तकनीकों को उनके लिए अनुकूलित बनाना जरूरी है जिसमें भाषा का व कंटेंट का बहुत अहम मुद्दा है।इसलिए भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं  में इंटरनेट के विस्तार पर बल दिया जा रहा है 
भारत की विशाल जनसंख्या इस परिवर्तन के मूल में है। इंटरनेट पर अंग्रेजी भाषा का आधिपत्य खत्म होने की शुरुआत हो गई है। गूगल ने हिंदी वेब डॉट कॉम से एक ऐसी सेवा शुरू की हैजो इंटरनेट पर हिंदी में उपलब्ध समस्त सामग्री को एक जगह ले आएगी। इसमें हिंदी वॉयस सर्च जैसी सुविधा भी शामिल है। गूगल का यह प्रयास ज्यादा से ज्यादा लोगों को इंटरनेट से जोड़ने की दिशा में उठाया कदम है। इस प्रयास को गूगल ने इंडियन लैंग्वेज इंटरनेट एलाइंस (आईएलआईए) कहा है। इसका लक्ष्य 2017 तक 30 करोड़ ऐसे नए लोगों को इंटरनेट से जोड़ना हैजो इसका इस्तेमाल पहली बार स्मार्टफोन या अन्य किसी मोबाइल फोन से करेंगे।
गूगल के आंकड़ों के मुताबिकअभी देश में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या 19.8 करोड़ हैऔर इसमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़े हुए हैं। तथ्य यह भी है कि भारत में इंटरनेट बाजार का विस्तार इसलिए ठहर-सा गया हैक्योंकि सामग्रियां अंग्रेजी में हैं। आंकड़े बताते हैं कि इंटरनेट पर 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में हैजबकि दुनिया की पांच प्रतिशत से कम आबादी अंग्रेजी का इस्तेमाल अपनी प्रथम भाषा के रूप में करती हैऔर दुनिया के मात्र 21 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी की समझ रखते हैं। इसके बरक्स अरबी या हिंदी जैसी भाषाओं मेंजो दुनिया में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैंइंटरनेट सामग्री क्रमशः 0.8 और 0.1 प्रतिशत ही उपलब्ध है। बीते कुछ वर्षों में इंटरनेट और विभिन्न सोशल नेटवर्किंग साइट्स जिस तरह लोगों की अभिव्यक्तिआशाओं और अपेक्षाओं का माध्यम बनकर उभरी हैंवह उल्लेखनीय जरूर हैमगर भारत की भाषाओं में जैसी विविधता हैवह इंटरनेट में नहीं दिखती।आज 400 मिलियन भारतीय अंग्रेजी भाषा की बजाय हिंदी भाषा की ज्यादा समझ रखते हैं लिहाजा भारत में इंटरनेट को तभी गति दी जा सकती हैजब इसकी अधिकतर सामग्री हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हो।आज जानकारी का उत्तम स्रोत कहे जाने वाले प्रोजेक्ट विकीपिडिया पर तकरीबन पेज 22000 हिंदी भाषा में हैं ताकि भारतीय यूजर्स इसका उपयोग कर सकें। भारत में लोगों को इंटरनेट पर लाने का सबसे अच्छा तरीका है उनकी पसंद का कंटेंट बनाना यानि कि भारतीय भाषाओं को लाना|वैश्विक परामर्श संस्था मैकेंजी का एक नया अध्ययन बताता है कि 2015 तक भारत के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में इंटरनेट 100 अरब डॉलर का योगदान देगाजो 2011 के 30 अरब डॉलर के योगदान के तीन गुने से भी ज्यादा होगा। अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा। इसमें देश के ग्रामीण इलाकों की बड़ी भूमिका होगी। मगर इंटरनेट उपभोक्ताओं की यह रफ्तार तभी बरकरार रहेगीजब इंटरनेट सर्च और सुगम बनेगा। यानी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर बढ़ावा देना होगातभी गैर अंग्रेजी भाषी लोग इंटरनेट से ज्यादा जुड़ेंगे।गूगल पिछले 14 सालों सेसर्च(खोज ) पर काम कर रहा है। यह सर्च भविष्य में सबसे ज्यादा मोबाइल के माध्यम से किया जाएगा। विश्व भर में लोग अब ज्यादातर मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट चला रहे हैं। बढते स्मार्ट फोन के प्रयोग ने सर्च को और ज्यादा स्थानीयकृत किया है वास्तव में खोज ग्लोबल से लोकल हो रही है जिसका आधार भारत में तेजी से बढते मोबाईल इंटरनेट प्रयोगकर्ता हैं जो अपनी खोज में स्थानीय चीजों को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं|
ये रुझान दर्शाते हैं कि भारत नेट युग की अगली पीढ़ी में प्रवेश करने वाला है जहाँ सर्च इंजन भारत की स्थानीयता को ध्यान में रखकर खोज प्रोग्राम विकसित करेंगे और गूगल ने स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक पर आधारित वायस सर्च की शुरुवात की है जो भारत में सर्च के पूरे परिद्रश्य को बदल देगी|स्पीच रेकग्नीशन टेक्नीक लोगों को इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए किसी भाषा को जानने की अनिवार्यता खत्म कर देगी वहीं बढते स्मार्ट फोन हर हाथ में इंटरनेट पहले ही पहुंचा रहे हैं |आंकड़ों की द्रष्टि में ये बातें बहुत जल्दी ही हकीकत बनने वाली हैं |वैश्विक  परामर्श संस्था मैकिन्सी कम्पनी का एक नया अध्ययन बताता है कि इंटरनेट  साल 2015 तक  भारत की जी डी पी (सकल घरेलू उत्पाद )में १०० बिलियन डॉलर का योगदान देगा जो कि वर्ष2011 के 30 बिलियन डॉलर के योगदान से तीन गुने से भी ज्यादा होगा अध्ययन यह भी बताता है कि अगले तीन साल में भारत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट उपभोक्ताओं को जोड़ेगा और देश की कुल जनसंख्या का 28 प्रतिशत इंटरनेट से जुड़ा होगा जो चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा जनसँख्या समूह होगा |इसलिए इंटरनेट सिर्फ अंग्रेजी भाषा जानने वालों का माध्यम नहीं रह गया है |
राष्ट्रीय सहारा में 07/09/15को प्रकशित 

Tuesday, September 1, 2015

दुनिया में नयी क्रांति लाने में सक्षम :इंटरनेट ऑफ थिंग्स

इंटरनेट नित नयी तरक्की कर रहा हैइंटरनेट ने जबसे अपने पाँव भारत में पसारे हैं तबसे हर जगत में तरक्की के सिक्के गाड़ रहा है। इंटरनेट न सिर्फ संचार जगत में क्रांतिकारी बदलाव लाने में सफल हुआ है बल्कि हमारे जीवन जीने के सलीके और जीवन शैली में भी बदलाव लाया है। शिक्षामेडिकलहेल्थमनोरंजन की फील्ड में तो इंटरनेट अपने कारनामे दिखा ही रहा हैसाथ ही अब इंटरनेट ऑफ थिंग्स के जरिये ऐसे कारनामे करने को तैयार है जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते।  2010 में हुए एक शोध में पाये गए आंकड़ों की मानें तो 2010 में विश्व की आबादी तकरीबन 6.8 बिलियन थी और उस दौरान 13 बिलियन लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे थे। आने वाले पांच सालों में यह आंकड़ा 50 बिलियन पार कर सकता है। मूलत भारत जैसे देश में इंटरनेट अब स्मार्ट फोन का पर्याय बनता जा रहा है क्योंकि यहां स्मार्ट फोन धारकों  की संख्या बढ़ती जा रही है | इंटरनेट मुख्यता कंप्यूटर आधारित तकनीक रही है पर स्मार्ट फोन के आगमन के साथ ही यह धारणा तेजी से ख़त्म होने लग गयी और जिस तेजी से मोबाईल पर इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है वह साफ़ इशारा कर रहा है की भविष्य में इंटरनेट आधारित सेवाएँ कंप्यूटर नहीं बल्कि मोबाईल को ध्यान में रखकर उपलब्ध कराई जायेंगी|स्मार्टफोन उपभोक्ताओं के लिहाज से विश्व में दूसरा सबसे बड़ा बाज़ार है। आईटी क्षेत्र की एक अग्रणी कंपनी सिस्को ने अनुमान लागाया है कि सन २०१९ तक भारत में स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ताओं की संख्या लगभग ६५ करोड़ हो जाएगी। सिस्को के मुताबिक वर्ष २०१४ में मोबाइल डेटा ट्रैफिक ६९ प्रतिशत तक बढ़ा. साथ ही वर्ष २०१४ में विश्व में मोबाइल उपकरणों एवं कनेक्शनों  की संख्या बढ़कर ७.४ बिलियन तक पहुँच गयी.स्मार्टफोन की इस बढ़त में ८८ प्रतशित हिस्सेदारी रही और उनकी कुल संख्या बढ़कर ४३९ मिलियन हो गयी|
स्मार्ट फोन से तात्पर्य ऐसे फोन से जिनपर इंटरनेट के वो सारे काम अंजाम दिए जा सकते हैं जो पहले किसी कंप्यूटर पर किये जाते थे | इंटरनेट से जुड़ा स्मार्ट फोन हमारे जीवन में कई मूलभूत बदलाव लाया पर यह बदलाव ज्यादातर संचार आधारित रहा पर अब यह अपने विकास के अगले चरण में जा रहा है ,जहां फोन ही नहीं ,घर से लेकर हमारी गाड़ी ,किचन तक सब स्मार्ट होंगे |इसको आप यूँ समझ सकते हैं आप कहीं बाहर से घर लौटे आपको बहुत गर्मी लग रही है आप तुरंत अपना ए सी ऑन करते हैं कि गर्मी से कुछ राहत मिले |पर ए सी कमरा ठंडा करने में कुछ वक्त लेता है |ए सी अगर आधा घंटा पहले कोई ऑन कर देता तो जब आप घर पहुंचते आपको कमरा ठंडा मिलता|उसके लिए घर में किसी का होना जरूरी है पर  इंटरनेट ऑफ थिंग्स आपकी जिंदगी आसान कर रहा है |आपका स्मार्ट ए सी आपके स्मार्ट फोन से जुड़ा हुआ आप बगैर घर आये दुनिया के किसी कोने से इंटरनेट की मदद से अपने ए सी को ऑन या ऑफ कर सकते हैं |
भारतीय करते हैं सबसे ज्यादा स्मार्ट फोन का इस्तेमाल
इस बीच टेलीकॉम कंपनी एरिक्सन ने अपने एक शोध के नतीजे प्रकाशित किए हैंजो काफी दिलचस्प हैं। इससे पता चलता है कि स्मार्टफोन पर समय बिताने में भारतीय पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं। एक औसत भारतीय स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता रोजाना तीन घंटा 18 मिनट इसका इस्तेमाल करता है। इस समय का एक तिहाई हिस्सा विभिन्न तरह के एप के इस्तेमाल में बीतता है। एप इस्तेमाल में बिताया जाने वाला समय पिछले दो साल की तुलना में 63फीसदी बढ़ा है। स्मार्टफोन का प्रयोग सिर्फ चैटिंग एप या सोशल नेटवर्किंग के इस्तेमाल तक सीमित नहीं हैलोग ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर तरह-तरह के व्यावसायिक कार्यों को स्मार्टफोन से निपटा रहे हैं।
मोबाइल पर वीडियो देखने का बढ़ता चलन टेलीविजन के लिए बड़े खतरे के रूप में सामने आ रहा है। अमेरिका में टेलीविजन देखने के समय में गिरावट दर्ज की जा रही है और भारत भी उसी रास्ते पर चल पड़ा है। इस शोध के मुताबिकस्मार्टफोन के 40 प्रतिशत प्रयोगकर्ता बिस्तर पर देर रात तक वीडियो देख रहे हैं। 25 प्रतिशत चलते वक्त, 23 प्रतिशत खाना खाते वक्त और 20 प्रतिशत खरीदारी करते वक्त भी वीडियो देखते हैं। इसके साथ ही कॉम स्कोर की एक रिपोर्ट के मुताबिकइंटरनेट ट्रैफिक का 60 प्रतिशत हिस्सा मोबाइल फोन व  टेबलेट से पैदा हो रहा है और इस मोबाइल ट्रैफिक का करीब 50 प्रतिशत भाग मोबाइल एप से आ रहा है।
मोबाइल का बढ़ता इस्तेमाल भारतीय परिस्थितियों के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। बिजली की समस्या से जूझते देश में मोबाइल टीवी के मुकाबले कम बिजली खर्च करता है। यह एक निजी माध्यम हैजबकि टीवी और मनोरंजन के अन्य माध्यम इसके मुकाबले कम व्यक्तिगत हैं। दूसरे आप इनका लुत्फ अपनी जरूरत के हिसाब से जब चाहे उठा सकते हैंयह सुविधा टेलीविजन के परंपरागत रूप में इस तरह से उपलब्ध नहीं है। सस्ते होते स्मार्टफोनबड़े होते स्क्रीन के आकारनिरंतर बढ़ती इंटरनेट स्पीड और घटती मोबाइल इंटरनेट दरें इस बात की तरफ इशारा कर रही हैं कि आने वाले वक्त में स्मार्टफोन ही मनोरंजन और सूचना का बड़ा साधन बन जाएगा।


क्या है इंटरनेट ऑफ थिंग्स ?
केविन एश्टन ने सन 1999 में पहली बार इंटरनेट ऑफ थिंग्स शब्द का इस्तेमाल किया था।  इंटरनेट ऑफ थिंग्स इंटरनेट जगत में एक ऐसा विकास है जिसके जरिये हमारे जीवन शैली में तेजी से बदलाव आएगा हमारे काम आसान हो जायेंगे जिससे न सिर्फ मैनपावर की बचत होगी बल्कि हमारा समय भी बचेगा जिसे हम किसी और कामों में उपयोग कर सकते हैं। इंटरनेट ऑफ थिंग्स को इंटरनेट ऑफ ऑब्जेक्ट्स भी कहा जाता हैया इसे इंटरनेट ऑफ एवरीथिंग और मशीन टू मशीन एरा कह कर भी सम्बोधित कर सकते हैं।  यह ऑब्जेक्ट्स के बीच वायरलेस नेटवर्क क्रिएट करेगा जिससे वो अप्लाइंस खुद ही काम करेगा। यह इस मिथ को हटाएगा कि इंटरनेट सिर्फ लोगों के बीच ही कम्युनिकेशन आसान बनाता है।  अब अप्लायंस और अन्य इलेक्ट्रॉनिक आइटम भी आपस में वायरलेस नेटवर्क के जरिये जुड़ेंगे और काम करेंगे। इंटरनेट औफ थिंग्स को हैंडल करने के लिए कई ऐसे ग्रेजुएट्स की जरूरत पड़ेगी जिन्हें सॉफ्टवेयर की अच्छी नॉलेज है।  कंप्यूटर की दुनिया में समझ रखने वाले ऐसे ग्रेजुएट्स तैयार किये जाएंगे।  ऐसे लोग जिन्हें कंप्यूटर इंजीनियरिंग के साथ साथ मैक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर कोडिंग तक की अच्छी समझ होगी।  

क्या है तकनीक 
इंटरनेट ऑफ थिंग्स का मतलब है इंटरनेट नेटवर्क और इलेक्ट्रॉनिक अप्लाइंस का समूह।यह एक ग्लोबल नेटवर्क संरचना है जिसमें लोग क्लाउड कंम्यूटिंगडाटा कैप्चर व नेटवर्क कम्यूनिकेशन के जरिए वस्तुओं से जुड़े होते हैं। ऐसा पहला प्रोडक्ट तो 1982 में ही आया जब इंटरनेट से कनेक्ट किया हुआ कोक मशीन बना इसकी खासियत यह थी कि यह इंटरनेट के जरिये कनेक्ट था जिसमें यह टेस्ट किया गया था कि नयी लोड की हुई कोल्ड्रिंक ठंडी होती है या नहीं। इंटरनेट ऑफ थिंग्स सेंसर द्वारा काम करेगा जो जरूरत पड़ने पर अलर्ट हो जाएगा। आईपी अड्रेस से चलाया जाएगा जो नेटवर्क के जरिये कनेक्ट होगा। इंटरनेट ऑफ थिंग्स की आवश्यकता पड़ने का एक कारण इंसान की  व्यस्तता भी है। इंटरनेट बिना इंसान के क्लिक करेकोई इंफोर्मेशन नहीं देता। इसीलिए ऐसे टेक्नोलॉजी की शुरुआत की जा रही जिसमें सब कुछ ऑटो मोड पर होगा। इंटरनेट ऑफ थिंग्स का कॉन्सेप्ट यहीं से आया। टेक्नोलॉजी रिसर्च के शोध की मानें तो साल 2020तक 26 बिलियन डिवाइस इंटरनेट ऑफ थिंग्स से बन जाएंगी और 30 बिलियन डिवाइस इंटरनेट के जरिये वायरलेस रूप में कनेक्ट होने की संभावना है।   

अन्य देशों में बहुत है उत्सुकता 
 यूके चांसलर बताते हैं कि इंटरनेट ऑफ थिंग्स सूचना के जगत में क्रांति लाएगा। न सिर्फ आईटी विभाग में बल्कि मेडिकलहोममेड अप्लाइंस और उर्बन ट्रांसपोर्ट में भी मदद करेगा। विदेशी देशों में इंटरनेट ऑफ थिंग्स को लेकर उत्सुकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूके गवर्न्मेंट ने साल 2015 के बजट से तकरीबन 40 मिलियन यूरो इंटरनेट ऑफ थिंग्स पर रिसर्च के लिए लगाया है। भारत में इसकी शुरुआत हो चुकी है।  दक्षिण के कई हॉस्पिटल्स में इसका उपयोग होना शुरू हो चुका है और अच्छे रिजल्ट्स भी दे रहा है।  हेल्थकेयर की क्वालिटी में सुधार लाने के लिए आईओटी का प्रयोग मेडिकल  इंडस्ट्री में हो रहा है। 

इंटरनेट ऑफ थिंग्स से बनेगा 'स्मार्ट सिटी', भविष्य में कई उम्मीदें हैं 
इंटरनेट औफ थिंग्स से उम्मीदें बहुत हैंइससे स्मार्ट सिटीस्मार्ट होमस्मार्ट हेल्थ और इंडस्ट्रियल ऑटोमेशन होने की संभावना है। यह ऐसी तकनीक है जिसमें स्मार्ट होम हैंस्मार्ट एप्लाइंसेस हैंस्मार्ट प्रोडक्शन लाइंस हैंस्मार्ट सिटीस्मार्ट डिवाइसेस के साथ स्मार्ट आदमी भी हैं।इंटरनेट ऑफ थिंग्स से सीधा सा मतलब यह है कि जिन कामों को हमें मैनुअली करना पड़ता थाअब वह ऑटो मोड पर होगाजिसके लिए हमें वहां मौजूद होने की भी जरुरत नहीं होगी। इंटरनेट ऑफ थिंग्स जीवन शैली को बेहतर बनाने के लिए टेक्नोलॉजी जगत का एक अच्छा कदम है। मानव श्रम को गैर उत्पादक कार्यों से हटा कर उत्पादक कार्यों से जोड़ा जाएगा और ऐसे गैर उत्पादक कार्य जो अर्थव्यवस्था में सीधे कोई योगदान नहीं दे रहे हैं आई ओ टी के जिम्मे छोड़ दिए जायेंगे | इससे हम ऐसे अप्लाइंस को आसानी से मैनेज कर पाएंगे जिन्हें हम रोजमर्रा की जिदंगी में इस्तेमाल करते हैं।  इससे कॉस्ट और रिसोर्स दोनों की ही बचत हो सकेगी। 

आईओटी बनाएगा स्मार्ट होम-  यदि हम घर से दूर कहीं जा रहे तो हम घर में किसी न किसी को छोड़कर जाते हैंयहसोचकर की कहीं हमारी गैरमौजूदगी में चोरी न हो।  पर अब हम इस डर को इंटरनेट ऑफ थिंग्स की मदद से दूर कर सकेंगे। इंटरनेट ऑफ थिंग्स के जरिये हम स्मार्टफोन से अपने घर में कनेक्ट हो सकते हैंऔर न होते हुए भी घर पर नजर रख सकते हैं।  इससे स्मार्ट होम की शुरुआत होगी। 
मेडिकल जगत में भी लाएगा क्रांतिभारतीय हॉस्पिटल्स भी इंटरनेट ऑफ थिंग्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। दक्षिण भारत के एक हॉस्पिटल ने इंटरनेट ऑफ थिंग्स के जरिये एक ऐसा एप बनाया है जिससे गर्भ में पल रहे बच्चे की पल्स रेट की लगातार अपडेट मिलती रहती है,इसका फायदा माँ और डॉक्टर दोनों को होता है। दूरदराज बैठा डॉक्टर दोनों की सेहत और नजर रख सकता है और कोई अनहोनी होने से पहले ही उसपर काबू पा सकता है। इसकी मदद से रूटीन चेकअप के लिए नहीं जाना पड़ताइससे पैसे और समय दोनों की ही बचत होती है। 

साईबर सेंधमारी बन सकती है विकास में बाधा
जिस तरह से हर माँ बाप को अपने बच्चों की अच्छाई बुराई की फ़िक्र होती हैउसी तरह फादर औफ इंटरनेट कहलाये जाने वाले विन्ट सर्फ को भी आईओटी (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) को लेकर थोड़ा डरे हुए  है।  जर्मनी में हुए एक प्रेस कोन्फेरेंस के दौरान विन्ट ने बताया कि चूँकि आईओटी अप्लाइंस और सॉफ्टवेयर से मिलकर बना हैइसीलिए उन्हें डर हैंसॉफ्टवेयर्स को लेकर शुरुआत से ही उन्हें चिंता रही है। सॉफ्टवेयर को हैक कर लेना एक बड़ा मुद्दा है |भारत जैसे देश में जहां तकनीक पहले आ रही है और उससे जुड़े कानून बाद में बन रहे हैं |इसके लिए तैयार रहने की जरुरतहै |  देश को सायबर हमले से बचाने की जिम्मेदारी साल 2004 में बनी इन्डियन कंप्यूटर इमरजेंसी रेस्पोंस टीम (सी ई आर टी -इन )के जिम्मे थी |साल 2004 से 2011 तक आधिकारिक तौर पर सायबर हमलों की संख्या 23 से बढ़कर 13,301तक पहुँच गयी और वास्तविक संख्या इन आंकड़ों से कई गुना ज्यादा हो सकती हैपिछले वर्ष सरकार ने सी ई आर टी को दो भागों में बाँट दिया अब ज्यादा  महत्वपूर्ण मामलों के लिए नेशनल क्रिटीकल इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोटेक्शन सेंटर की एक नयी इकाई बना दी गयी है  जो रक्षा,दूरसंचार,परिवहन ,बैंकिंग आदि क्षेत्रों की साइबर सुरक्षा के लिए उत्तरदायी है |साईबर सुरक्षा के लिए 2012-13 के लिए  मात्र 42.2 करोड रुपैये ही आवंटित किये गए जो कि काफी कम है साईबर हमलों के लिए चीन भारत के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है |एसोसिएटेड प्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले महीने में दुनिया में हुए बड़े सायबर हमलों के लिए चीन सरकार समर्थित पीपुल्स लिबरेशन आर्मी जिम्मेदार है जिसके हमलों में प्रमुख सोशल नेटवकिंग साइट्स फेसबक और ट्वीटर भी थीं|पिछले कई वर्षों से चीन को साइबर  सेंधमारी के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है जिसके निशाने पर ज्यादातर अमेरिकी सरकार और कंपनियां रहा करती हैं पर इंटरनेट के बढते विस्तार से भारत में साइबर हमले का खतरा बढ़ा है पर हमारी तैयारी उस अनुपात में नहीं है आवयश्कता समय की मांग के अनुरूप कार्यवाही करने की है|
प्रभात खबर में 01/09/15 को प्रकाशित 

पसंद आया हो तो