Tuesday, June 24, 2014

प्लानिंग के लिए भी प्लान

ट्रेन का किराया बढ़ गया.अब अगर आपने कहीं जाने का प्लान बनाया होगा तो आपका बजट गड़बड़ा हो गया होगा.यूपी सी पी एम् टी का पर्चा लीक हो गया.एक्साम कराने वाले लोगों का समय पर रिजल्ट निकालने का प्लान गड़बड़ा गया.मैं भी काफी दिनों से कुछ लिखने का प्लान कर रहा था पर क्या लिखूं समझ नहीं पा रहा था.अरे सुनिए मैंने ये प्लान शब्द कितनी ज्यादा बार लिख दिया.वैसे प्लान बड़ा इंट्रेस्टिंग शब्द है.आज प्लान को बगैर प्लान किये हुए समझने की कोशिश करते हैं. वैसे भी आजकल प्लानिंग का ज़माना है,वो चाहे फाइनेंसियल प्लानिंग हो या फैमली, प्लान तो हम सब करते हैं कुछ न कुछ.आपने भी तो प्लान   किया होगा  कि सुबह उठकर अखबार के इस कॉलम को पढना है.मेरे एक मित्र कहते हैं कि इन्सान  प्लानिंग ही कर सकता है उसका एप्रूवल ऊपर वाले के हाथ होता है.सच ही है न अब देखिये न हमारे हाथ में वास्तव में कुछ भी नहीं है हम लोग तो बस कोशिश ही कर सकते हैं.भाई हम सब अपनी ज़िन्दगी में कितने प्लान बनाते हैं पर सब थोड़ी न पूरे होते हैं पर हर प्लानिंग का कोई न कोई बेस जरुर होता है.जो प्लानिंग का बेस नहीं बनाते उन्हें डे ड्रीमर कहते हैं जो सिर्फ योजनाएं बनाते रहते हैं पर प्रैक्टिस में कुछ नहीं कर पाते.अब मोबाईल को ही लीजिए कम्पनी के प्लान बहुत सारे होते हैं पर हम जरुरत और जेब के हिसाब से अपना प्लान चुनते हैं न कि दूसरों की देखा देखी.मोबाईल पर अगर इंटरनेट चलाना है या चैट करनी है तभी हमें डाटा प्लान की जरुरत पड़ेगी पर अगर इंटरनेट चलाना है तो स्मार्ट फोन लेना पड़ेगा नहीं तो डाटा प्लान लेने का कोई मतलब नहीं है. प्लानिंग कोई भी हो सब एक दूसरे से इंटर लिंक्ड ही होती हैं अगर आपने फैमिली की प्लानिंग की तो फाइनेंसियल प्लानिंग का कुछ हिस्सा अपने आप हो जायेगा.भाई बच्चे कम तो उनपर होने वाला खर्चा कम मतलब बचत ज्यादा.तो ये बात तो प्रूव हो गयी कि प्लानिंग करनी चाहिए पर कैसे की जाए मामला यही इम्पोर्टेंट है.
वैसे मैंने अक्सर देखा है कि लोग कॉल या मेसेज न कर पाने का कारण बैलेंस का न होना बताते हैं.ऐसा कभी कभार होता है तो चलेगा पर ऐसा अगर अक्सर हो रहा है तो मामला गडबड है.कभी आपने सोचा कि ऐसा क्यूँ होता है इसके दो कारण हो सकते हैं या तो आपकी प्लानिंग ठीक नहीं है या आपकी प्राथमिकता में फोन रीचार्ज करना उतना जरूरी नहीं है.अगर आप पढ़ाई कर रहे हैं तो लेट नाईट चैट प्लान आपके किसी काम का नहीं,अब अगर सस्ते के चक्कर में मोबाईल का लेट नाईट चैट प्लान ले लेंगे तो जाहिर आपके बाकी के प्लान जिसमें पढ़ाई और फ्यूचर के और प्लान गड़बड़ायेंगे. यानि या तो अपने आपको बदलिए या अपने प्लान को.प्लानिंग करते वक्त अपनी जरुरत और सीमाओं के बीच बैलेंस जरुर बनाइये.मेरी बात को सही या गलत के नजरिये से न देखें ये मानें कि जब आपका प्लान गड़बड़ाता है तो बहाने मत बनाइये ये मानिए कि या तो आपकी प्लानिंग गडबड थी या आपकी प्राथमिकता बदल चुकी है.
ये बात उतनी आसान भी नहीं है कई बार हमारे प्लान की सफलता या विफलता और  फैक्टर्स पर भी डिपेंड करता है और जब ऐसा होता है तो समझ लीजिए कि आपके लाख चाहने के बाद भी ऊपर वाला आपके प्लान को एप्रूव नहीं कर रहा है पर इसका मतलब न निकाल लीजिए कि आपके चाहने से क्या होता है,या प्लान करने से क्या फायदा.प्लान कीजिये परिस्थितियों से जूझिये सफल होते हैं तो उसका मजा लीजिए और अगर फेल हो जाते हैं तो फिर से कोशिश कीजिये अपनी प्लानिंग को एनालाइज़ कीजिये कि गडबड कहाँ  हुई.आखिर हम अपने सपनों को इतनी आसानी से थोड़ी न छोड़ सकते है पर उन सपनों पर रीयल्टी का कोई बेस जरुर रखें.बेस से मतलब आप अपनी इनकम के हिसाब से ही सेविंग करते हैं कभी ऐसा नहीं हो सकता कि आपकी इनकम कम हो और सेविंग ज्यादा, तो कुछ भी प्लान करते वक्त इस बात का एहसास जरुर रखिये कि आप जो कुछ सोच रहे हैं वो कितना वास्तविकता के कितना करीब है.अगर आपकी देर रात में पढ़ने की आदत है तो दिन में पढ़ने की प्लानिंग मत करिये दिन में बाकी के काम के साथ थोड़ा सो भी लीजिए और रात में पढ़ाई  कीजिये.तो मैं आपको छोड़े जा रहा हूँ कुछ नया प्लान करने के लिए क्यूंकि आने वाला दिन आज से बेहतर इसी प्लान के साथ हो सकता है.
आई नेक्स्ट में 24/06/14 को प्रकाशित 

Wednesday, June 18, 2014

पुलिस में जातिगत दबदबा


समाजवादी पार्टी की वर्तमान सरकार  इस धारणा को पुष्ट ही करती है कि जब-जब सपा सरकार में रही प्रदेश में अपराधियों और दबंगों के हौंसले ऊँचे रहते हैं.अखिलेश सरकार चौतरफा आलोचना का शिकार हो रही है पर कानून व्यवस्था के मामले में सरकार की विफलता एक पूरी प्रक्रिया का परिणाम है. इस सरकार का भविष्य तो उसी दिन तय हो गया था जब शपथ ग्रहण के दौरान समाजवादी कार्यकर्ताओं ने हंगामा किया था, फिर झांसी में पत्रकारों की पिटाई का प्रकरण हो या कुंडा में सीओ हत्याकांड घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्त है.मुज्जफरनगर के दंगों का दर्द अभी कम नहीं हुआ था कि बदायूं का लौमहर्षक बलात्कार हत्या कांड  और फिर दो पुलिस कर्मियों की हत्या.घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं.सरकार आंकड़ों का हवाला देकर कह रही है कि अन्य प्रदेशों के मुकाबले उत्तर प्रदेश में हालात बेहतर हैं पर कानून व्यवस्था के मामले में मुख्यतः लोगों का भरोसा ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. जिसमें उन्हें लगता है कि सब ठीक है पर उत्तरप्रदेश में लोगों का यह मानना है कि सरकार अपराध पर लगाम नहीं कस पा रही है.आंकड़े इस तथ्य की पुष्टि करते हैं नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार उत्तर प्रदेश में हिंसक अपराधों में लगातार वृद्धि हुई है साल 2012 में कुल 33,824 घटनाएं दर्ज की गयीं जिनमें दो हजार बलात्कार के मामले और 4,966 हत्या की घटनाएँ थी.केन्द्रीय गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में साल 2012 में दंगों से जुड़ी 118 घटनाएं हुईं जो साल  2013 में बढ़कर  247 हो गयीं जिनमें क्रमशः 39 व 77 लोग मारे गए.अपराध पर नकेल न लग पाने का एक और कारण वोटबैंक पॉलीटिक्स भी है.प्रदेश के 1560 पुलिस थानों में से 800 थानों के प्रभारी एक जाति विशेष से सम्बन्ध रखने वाले अधिकारी हैं.सत्ता में आने के तुरंत बाद अखिलेश सरकार ने अपने गृह जिले और पड़ोसी जिले में पुलिस वालों की तैनाती न होने देने के नियम को बदल दिया जिससे पुलिस में जातियों का दबदबा बढ़ा और पूर्वाग्रह युक्त निर्णय लिए गए.बदायूं कांड इसकी एक मिसाल है जिसमें तीनो आरोपी एक जाति विशेष के हैं और स्थानीय पुलिस वाले भी उसी जाति विशेष से सम्बंधित हैं जिन पर यह आरोप लगा है कि उन्होंने आरोपियों को बचाने की कोशिश की.सरकार ने सात जून को अपना फैसला पलटते हुए पुरानी व्यवस्था को बहाल किया है पर तब तक काफी देर हो चुकी थी.सरकार दंगों और अपराध के वक्त त्वरित कार्यवाही नहीं कर पायी.जिससे यह सन्देश गया कि मुख्यमंत्री खुद निर्णय ले पाने में सक्षम नहीं है.यह धारणा इस लिए भी पुख्ता होती है कि बदायूं कांड के सामने आने के 6 दिन बाद प्रमुख सचिव (गृह) अनिल कुमार गुप्ता का ट्रांसफर किया गया. सरकार में  संगठित अपराध और आतंक से निपटने के लिए पुलिस की दो शाखाएं एस टी एफ (स्पेशल टास्क फ़ोर्स )और ए टी एस (एंटी टेरेरिज्म स्क्वैड ) एक दम निष्क्रिय हो गया है.एस टी एफ पिछले दो वर्षों में दस से भी कम ऑपरेशन को अंजाम दे पाया जिससे संगठित रूप से अपराध करने वालों के हौसले बुलंद हुए हैं और सरकार का जलाल कम हुआ है.
राजस्थान पत्रिका में 18/06/14 को प्रकाशित 


समुद्र को भी समझने की जरुरत है

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों में कूड़ा प्रबंधन भी है पर ये कूड़ा धरती के लिए ही नहीं बल्कि समुद्रों के लिए भी बड़ा खतरा बनता जा रहा है|आमतौर पर यह धारणा है कि समुद्र बहुत विशाल है इसमें कुछ भी डाल दिया जाए तो पर्यावरण पर इसका फर्क नहीं पड़ेगा पर वास्तविकता इसके उलट है|पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का लगभग सत्तानबे  प्रतिशत समुद्र  में है। समुद्र  हमारी धरती के लगभग इकहत्तर प्रतिशत हिस्से पर है। समुद्र की उपस्थिति पर धरती का अस्तित्व निर्भर करता है। परंतु विगत कुछ वर्षों से धरती पर मौजूद अन्य जलाशयों की भांति ही मनुष्यों ने समुद्र  को भी अपने अविवेकपूर्ण एवं लापरवाह आचरण का शिकार बनाना शुरू कर दिया है और अधिक चिंताजनक विषय यह है कि इस ओर हमारे पर्यावरणविदों का ध्यान न के बराबर ही है। हाल ही में दुर्घटना का शिकार हुए मलेशिया के विमान का मलबा ढूंढते समय स्वच्छ समझे जाने वाले समुद्र में जिस मात्रा में अत्यधिक प्रदूषक कूड़ा निकला है उसने सम्पूर्ण विश्व का ध्यान समुद्री प्रदूषण की विकराल होती समस्या की ओर आकर्षित किया है। बढ़ती हुई जनसंख्या और पृथ्वी भूमि संसाधनों पर निरंतर बढ़ते जा रहे दबाव से यह तो तय है कि आने वाले वक़्त में हमें अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए समुद्र  की ही शरण में जाना पड़ेगा इसलिए यह आवश्यक  है कि हम अपने समुद्र  का संरक्षण करें। समुद्र  में हम प्लास्टिक से लेकर रेडियोधर्मी कचरे तक सबकुछ डाल रहे हैं। समुद्र  के लिए सबसे बड़ा खतरा है – प्लास्टिक। बदलती जीवन शैली,प्रयोग करो और फैंको की मनोवृति और सस्ती प्लास्टिक की उपलब्धता ने प्लास्टिक का उत्पादन और कचरा दोनों ही बढाया है|प्लास्टिक कचरे के निस्तारण की पर्याप्त व्यवस्था अभी सभी देशों के पास उपलब्ध नहीं है|
पर्यवारण संस्था ग्रीन पीस के आंकलन के मुताबिक हर साल लगभग अठाईस करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है जिसका बीस प्रतिशत हिस्सा समुद्र में चला जाता है|कितना प्लास्टिक हमारे समुद्र के तल में जमा हो चूका है इसका वास्तविक अंदाज़ा किसी को नहीं है|उल्लेखनीय है कि ये कचरा समुद्र के ऊपर तैरते कचरे से अलग है|
प्लास्टिक की वजह से समुद्री खाद्य श्रखला पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। प्लास्टिक की वजह से न केवल समुद्री जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है बल्कि पूरे  के पूरे समुद्री पारितंत्र के भी बिखरने का खतरा उत्पन्न हो गया है। ग्रीनपीस संस्था के आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग दस लाख पक्षी और एक  लाख स्तनधारी जानवर समुद्री कचरे के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं।विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 14,000 करोड़ पाउंड कूड़ा-कचरा समुद्र  में फेंका जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्री कचरे का लगभग अस्सी प्रतिशत जमीनी इंसानी गतिविधियों तथा बचा हुआ बीस  प्रतिशत समुद्र में इंसान की गतिविधियों के फलस्वरूप आता है। जापान में 2011 में आए सूनामी ने प्रशांत महासमुद्र  में कूड़े का एक सत्तर  किलोमीटर लंबा टापू बना दिया। यह तो केवल एक उदाहरण भर है। विश्व भर में समुद्री कूड़े से बने ऐसे अनेकों टापू हैं और यदि समुद्र में कूड़ा डालने की हमारी आज की गति बरकरार रही तो वह दिन दूर नहीं जब समुद्र में हर तरफ सिर्फ कूड़े के टापू ही नज़र आएंगे। समुद्री कचरा जमीनी कचरे की तरह एक जगह इककट्ठा न होकर पूरे समुद्र में फैल जाता है। यह पर्यावरण, समुद्री यातायात, आर्थिक और मानव स्वास्थ्य को काफी भरी मात्रा में नुकसान पहुंचाता है। विश्व के कई देशों में इस समस्या का हल ढूँढने की कोशिशें शुरू हो गईं हैं। भारत  में भी सन 2000 में ठोस कचरे के निस्तारण को लेकर एक नीति बनाई गयी थी पर वह आज भी कागजों पर ही है। हम अपने सीवेज का केवल तीस  प्रतिशत का ही प्रक्रमण कर पाते हैं। बाकी का सीवेज वैसे का वैसा ही नदियों में डाल देते हैं जो अंततः समुद्र  में जाता है। देश की आठ हजार किलोमीटर लम्बी तटरेखा सघन रूप से बसी हुई है जिसमें मुंबई ,कोलकाता,चेन्नई ,गोवा ,सूरत और थिरुवनंतपुरम जैसे शहर शामिल हैं.तथ्य यह भी आर्थिक रूप से विकसित इन शहरों में जनसँख्या का दबाव बढ़ रहा है और शहर अपने कूड़े को समुद्र में डाल रहे हैं.अल्पविकसित देशों के लिए कूड़ा निस्तारण हेतु समुद्र एक अच्छा विकल्प साबित होते हैं इससे समस्या का फौरी तौर पर तो समाधान हो जाता है पर लम्बे समय में यह व्यवहार पर्यावरण और मानवजाति के लिए खतरा ही बनेगा| समुद्र की विशालता के कारण समूचे समुद्र की सफाई संभव नहीं है इससे बचने का एकमात्र रास्ता जागरूकता और बेहतर प्लास्टिक कूड़ा प्रबंधन है |इस दिशा में ठोस पहल की आवयकता है|
अमर उजाला में 18/06/14 को प्रकाशित 

Saturday, June 7, 2014

छोटे राज्य ज्यादा सफल

इतना बेबस हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ उत्तर प्रदेश की बेबसी का अंदाज़ा उसके आर्थिक पिछड़ेपन,बढते अपराध और प्रशासनिक अक्षमता से लगाया जा सकता है.उत्तराखंड के अलग होने के बाद भी उत्तर प्रदेश अभी भी जनसँख्या और क्षेत्रफल में भारत के बड़े राज्यों में से एक है.अब ये माना जाने लग गया है कि उत्तरप्रदेश के पिछडेपन के लिए इसका आकार जिम्मेदार है.लगभग बीस करोड की जनसँख्या वाला प्रदेश दुनिया के कई देशों से बड़ा है. यूपी में इस समय  देश में सबसे ज़्यादा यानी 75 ज़िले और 18 मंडल हैं.इतिहास बताता है कि छोटे राज्य विकास व प्रशासन के मामलों में बड़े राज्यों से बेहतर साबित होते हैं.छतीसगढ ,उत्तरांचल और झारखंड ने यह साबित भी कर दिखाया है कि कैसे यह अपने मूल राज्यों से अलग होने के बाद तरक्की की सीढीयां चढ़े हैं. आंकड़ों के लिहाज से भारत में लगभग  साढ़े तीन करोड़ लोग एक राज्य में निवास करते हैं जबकि ब्राजील के लिए यह संख्या 70लाखअमेरिका के लिए 60 लाख और नाइजीरिया के लिए 40 लाख है.भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में राज्य का बंटवारा एक चुनावी मुद्दा है। काफी लंबे वक़्त से इसे चार हिस्सों पूर्वाआँचल, बुंदेलखंड, हरित प्रदेश और अवध में बांटने की बात चल रही है। बहुजन समाजवादी पार्टी ने इसे पिछले चुनावों के दौरान अपने घोषणापत्र में भी शामिल किया था। छोटे राज्य प्रशासनिक दृष्टि से बेहतर माने जाते हैं। हालांकि हमारे देश में जब भी बँटवारे की बात होती है उसके गर्भ में राजनैतिक गुणा-भाग अधिक होता है और विकास की अवधारणा कम। स्वतंत्रता के तुरंत बाद से ही देश के भीतर भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को लेकर कई देश के अलग-अलग हिस्सों से आवाज़ें उठने लगीं थीं। उस दौरान राज्यों के आकार एवं आर्थिक सामर्थ्य पर कोई चर्चा नहीं होती थी। राज्य के बँटवारे के विरोध में यह तर्क दिये जाते हैं कि इससे क्षेत्रवाद एवं प्रांतीयता को बढ़ावा मिलेगा जो कि अंततः देश की एकता एवं अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। साथ ही यह तर्क भी दिया जाता है कि झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ का विकास उस गति से नहीं हुआ जैसा कि अपेक्षित था। परंतु यह उसी प्रकार का तर्क है कि जैसे यदि मनरेगा का लाभ वास्तविक लाभार्थियों को नहीं मिल रहा तो मनरेगा को ही समाप्त कर देना चाहिए। साथ ही यह तर्क आधारहीन भी है क्योंकि आज़ादी के बाद भी देश में कई नए राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, छतीसगढ़, झारखंड बने हैं पर उनकी वजह से देश की एकता या केन्द्रीय सरकार की सर्वोच्चता को कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नुकसान नहीं हुआ है।
छोटे राज्यों के गठन को हमें राजनैतिक नहीं अपितु व्यावहारिक दृष्टि से देखने की आवश्यकता है। देश की आज़ादी के बाद भाषायी आधार पर बने राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हाल ही में विभाजित हुआ आंध्र प्रदेश आकार एवं जनसंख्या की दृष्टि से कई देशों से भी बड़े हैं। बाबा साहब अंबेडकर का मानना था कि राज्यों का विभाजन व्यावहारिकता के आधार पर होना चाहिए न कि भाषा के आधार पर। बड़े राज्यों के अंदर के छोटे क्षेत्रों जैसे उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड और महाराष्ट्र के विदर्भ की आर्थिक बदहाली छोटे राज्यों के गठन की बढ़ती मांग के मूल में है। साथ ही विगत कुछ वर्षों में जिस प्रकार राष्ट्रिय स्तर पर क्षेत्रीय पार्टियों का महत्व बढ़ा है उसने भी नए राज्यों के गठन की मांग को बल दिया है। देश के जो हिस्से देश की उन्नति का हिस्सा बनने से रह गए हैं वहाँ से आर्थिक एवं प्रशासनिक आधार पर नए राज्यों के गठन की मांग ज़ोर पकड़ रही है। छोटे राज्य बनने से सरकार जनता के करीब होगी। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कई ज़िला मुख्यालयों तक जाने के लिए 100 किलोमीटर तक का सफर तय करना पड़ता है जो कि सामान्य जन के लिए आर्थिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से काफी कठिन है। छोटे राज्यों के गठन से यह दूरी काफी कम हो जाएगी और प्रशासन तक सामान्य लोगों की पहुँच बढ़ जाएगी। छोटे राज्यों का प्रबंधन अधिक बेहतर ढंग से किया जा सकेगा। तेलंगाना के गठन के बाद भी भारत के राज्यों की औसत जनसंख्या 4 करोड़ से भी अधिक है। इसकी तुलना  यदि यूरोपियन यूनियन से की जाये तो वहाँ की उसमें 28 देश हैं जिनकी औसत जनसंख्या लगभग 18 करोड़ है। छोटे राज्यों में समरूपता भी अधिक होगी। यह राजनैतिक एवं प्रशासनिक दृष्टि से भी वांछनीय है क्योंकि अधिक विविधता निर्णय लेने की प्रक्रिया को जटिल बना देती है। यह विविधता केवल सांस्कृतिक एवं भाषायी नहीं है बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक भी है। जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति बुंदेलखंड और विदर्भ की मुंबई एवं पुणे से पूर्णतः अलग है जिससे कि कई प्रशासनिक दिक्कतें आतीं हैं।
हालांकि छोटे राज्यों के गठन से नीति निर्माण से लेकर प्रशासन तक की सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी ऐसा भी नहीं है पर सैद्धान्तिक रूप से इनके गठन से फायदा ही अधिक होने की उम्मीद है और नुकसान कम। 
पत्रिका में 07/06/14 को प्रकाशित 

Thursday, June 5, 2014

इस नए चौपाल पर भी नामचीनों का कब्जा

आमतौर पर सोशल मीडिया, जैसे फेसबुक, ट्विटर, आदि को सामान्य जनमानस के विचारों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता है कि सोशल मीडिया सही मायने में एक ऐसा मीडिया है, जो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त है। पिछले कुछ समय से जनमत के निर्माण में भी इसकी भूमिका तेजी से बढ़ी है और ट्विटर इसका एक अच्छा माध्यम बनकर उभरा है। लेकिन सूचना साम्राज्यवाद के इस दौर में इंटरनेट भी सूचना के मुक्त प्रवाह का विकल्प बनकर नहीं उभर पा रहा। सोशल मीडिया में चर्चित विषय को रेडियो, टीवी और अखबार भी प्रमुखता से आगे बढ़ाते हैं। भारत कोई अपवाद नहीं है।
वर्ष 2009 में जहां सिर्फ एक भारतीय नेता के पास ट्विटर अकाउंट था, वहीं अभी-अभी समाप्त हुए चुनावों के दौरान देश के अधिकांश बड़े नेताओं ने ट्विटर के माध्यम से अपनी राय रखी। देश के आम चुनाव में सोशल मीडिया ने एक बड़ी भूमिका निभाई। अमेरिकी शोध पत्रिका ‘पलोस’ में छपे ब्रायन कीगन, द्रेव मगरेलिन और डेविड लजेर के शोध पत्र के मुताबिक किसी महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम में ट्विटर जैसी प्रमुख सोशल मीडिया साइट्स में अंतर-वैयक्तिक संवाद का स्थान प्रसिद्ध हस्तियों एवं उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों ने ले लिया, जिससे आम जनता के विचार उनके सामने दब के रह गए। नामचीन लोगों के ट्वीट या उनके विचारों को सोशल मीडिया ने ज्यादा तरजीह दी, जिससे सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय वही मुद्दे बने, जो पारंपरिक मीडिया में अथवा बड़ी हस्तियों द्वारा उठाए गए, न कि वे मुद्दे, जो वास्तव में जनता के मुद्दे थे।
इस शोध में 1,93,532 राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों के दो सौ नब्बे मिलियन ट्वीट को अध्ययन का क्षेत्र बनाया गया। ट्वीट्स के माध्यम से आती हुई सूचना इतनी आकर्षक व भ्रामक थी कि जनता उसमें उलझकर रह गई। लोग यह समझ ही नहीं पाए कि जिन मुद्दों को वे री-ट्वीट के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं, वे वास्तव में किसी और के मुद्दे हैं। जनता का ध्यान आपसी संवाद एवं मुद्दों के विश्लेषण से हटकर विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा किए गए ट्वीटस पर केंद्रित हो गया, जिससे न केवल स्वतंत्र विचारों पर कुठाराघात हुआ है, बल्कि अफवाहों के फैलने की आशंका भी बढ़ गई है।
इस तथ्य के बावजूद कि सोशल मीडिया ज्यादा लोगों की विविध आवाज को लोगों के सामने ला सकता है, किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में यह सोशल चौपाल वास्तविक चौपाल के उलट कुछ खास जनों तक सिमटकर रह जाता है। इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक ध्वनियों की अनदेखी हो जाती है, जिससे सही जनमत का निर्माण नहीं हो पाता। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में इसमें परिवर्तन आएगा और किसी महत्वपूर्ण घटनाक्रम में विविध ध्वनियां मुखरित होंगी।
हिंदुस्तान में 05/06/14 को प्रकाशित 

Tuesday, June 3, 2014

रिश्तों को न बनाये स्मार्ट

एक बात मुझे आजकल बहुत कचोट रही हैं, मेरे एक मित्र मुझसे किसी बात पर नाराज हो गए और बोले कि ज्यादा “स्मार्ट” न बना करो,खैर उन्हें तो मैंने मना लिया,क्यूंकि वो मेरे अपने थे  पर ये स्मार्ट शब्द मेरे जेहन में घुस गया,क्यूंकि बात दोस्ती के रिश्ते के रिश्ते की थी और र्श्ते में स्मार्टनेस कैसे और कहाँ से आ गयी.ओह मैं भी क्या ले बैठा छोडिये इस बात को. आजकल स्मार्ट होने का जमाना है वो चाहे फोन हो या टीवी या फ्रिज सब स्नार्ट होने चाहिए अब तो स्मार्ट चश्मे और घर भी बनने लग गए हैं .वैसे स्मार्ट होने में कोई बुराई भी नहीं है पर सुबह सुबह आपसे दिमाग पर जोर डालने के लिए कह रहा हूँ जो आपका पुराना फोन था जिसको बदल कर अभी आपने नया नया स्मार्ट फोन लिया है क्या उसकी कमी खलती है.आप कहेंगे कभी कभी जब नया  फोन हैंग होता है या कोई वाइरस आ जाता है. वो बहुत सिंपल था उसमें फीचर्स कम थे पर बात और मेसेजिंग के लिए ठीक था.अब ये नया फोन वैसे तो बहुत  बढ़िया है पर फीचर्स इतने ज्यादा है कि आधे की तो कभी जरुरत ही नहीं पड़ती.खैर मैं कोई टेक एक्सपर्ट तो हूँ नहीं मैं तो जिंदगी को समझने की कोशिश में लगा एक अदना सा इंसान हूँ जब इतनी चीजें स्मार्ट हो रही है तो रिश्ते क्यूँ न स्मार्ट हों,रिश्ते और स्मार्ट ये भला कैसी बात .आप भी सोच रहे होंगे कि ये क्या गडबडझाला है.रिश्ते तो बस रिश्ते होते हैं उनका स्मार्टनेस से क्या लेना देना.जब दुनिया बदल रही है तो रिश्ते क्यूँ नहीं बस यहीं मामला थोडा उल्टा हो जाता कुछ चीजें अपनी ऑरिजिनल फॉर्म में ही अच्छी लगती हैं और हमारे रिश्ते उनमें से एक है.जरा सोचिये हमारा वो पुराना फोन बात करने और मेसेज भेजने के काम तो कर ही रहा था और हममें से ज्यादातर लोग अपने स्मार्टफोन से भी वही काम करते हैं जो अपने पुराने फोन से करते थे.फोन पर चैटिंग और मिनट मिनट पर फेसबुक का इस्तेमाल बस थोड़े दिन ही करते हैं फिर जिंदगी की आपधापी में ये चीजें बस फोन का फीचर भर बन कर रह जाती हैं पर इस थोड़े से मजे के लिए हम अपने फोन को कितना कॉमप्लिकेटेड बना लेते हैं.फोन की स्क्रीन को सम्हालना कहीं गिर न जाए महंगा फोन हैं कहीं खो न जाए हमेशा अपने से चिपकाए फिरते हैं.आप परेशान न हों हम ये थोड़ी न कह रहे हैं कि आपने फोन बदल कर गलत किया.हम तो बस बता रहे हैं कि जब चीजें स्मार्ट होती हैं तो उसका क्या असर होता है रिश्ते भी वक्त के साथ बदलते हैं पर जो चीजें नहीं बदलती हैं वो है अपनापन, रिश्तों की गर्मी और किसी के साथ से मिलने वाली खुशी. हमारा फोन स्मार्ट हुआ तो कॉमप्लिकेटेड हो गया उसी तरह रिश्तों में अगर स्मार्टनेस आ जाती है तो उसमें कॉमप्लिकेशेन बढ़ जाता है फिर वो रिश्ते भले ही रहें पर उनमें वो अपनापन,प्यार नहीं रह जाता .भाई हम जिंदगी में कई तरह के रिश्ते  बनाते हैं कुछ पर्सनल तो कुछ फॉर्मल,कभी आपने महसूस किया है हम फॉर्मल रिश्तों में ज्यादा स्मार्टनेस दिखाते हैं हम जैसे हैं उससे अलग हटकर डिप्लोमेटिक बिहैव करते हैं.किसी बात पर गुस्सा भी आया तो हंसकर टाल गए ,कुछ बुरा लगा तो भी चेहरे पर मुस्कुराहट ओढ़े रहे जाहिर है जबकि हम ऐसे नहीं होते नहीं अगर अपने लोगों के साथ कुछ ऐसा हुआ होता तो हम जमकर गुस्सा करते पर बाहर हम ऐसा नहीं करते क्यूंकि जिन लोगों के साथ हम थे उनसे हमारे फोर्मल रिश्ते थे पर अगर इस तरह की चीजें आप लंबे समय तक करते रहे तो आप फ्रस्टेट हो जायेंगे,इसलिए हर इंसान के जीवन में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके सामने वो असल में जैसा होता है वैसा दिखा सकता है.वो रो सकता है ,कह सकता है कि ये काम मुझसे  गलती हो गया.जाहिर है अपने लोगो से स्मार्टनेस दिखाने का कोई फायदा नहीं है.ये लोग हमारे अपने हैं जो हमारी सब अच्छे बुराई जानते हैं.ये हमारे नाम, ओहदे,रसूख के कारण हमारे साथ नहीं है, ऐसे रिश्तों के साथ कोई नियम व शर्तें नहीं लागू होती हैं.अब आपको समझ में आ गया होगा कि स्मार्टफोन खरीदते वक्त नियम व शर्तें जरुर पढ़ें पर जब बात अपनों की हो तो कोई बिलकुल स्मार्टनेस न दिखाएँ क्यूंकि अपने  रिश्तों के साथ कोई नियम और शर्तें नहीं होती हैं,तो मैं फोन भले ही स्मार्ट रखता हूँ पर असल में स्मार्ट हूँ नहीं.
आईनेक्स्ट में 03/06/14 को प्रकाशित 

पसंद आया हो तो