Monday, September 30, 2013

अवैध खनन द्वारा नदियों से खिलवाड़

रोटी कपड़ा और मकान के संकट से जूझते एक आम भारतीय के लिए पर्यावरण या उससे होने वाला नुकसान अभी भी कोई मुद्दा नहीं है और अवैध बालू खनन भी एक ऐसा ही मामला है जो हमें महज एक कानूनी मसला लगता है। बालू के अवैध खनन के पीछे एक बड़ा कारण इसका भारी होना भी है जिसके कारण बालू को दूर तक ले जाना मुश्किल होता है। इसलिए निर्माण कंपनियां आसपास के इलाकों से बालू निकालने को प्राथमिकता देती हैं। बालू का इस्तेमाल कंक्रीट में मिलाने और ईटें बनाने के लिए किया जाता है। हालांकि सरकार ने बालू खनन के लिए लाइसेंस की व्यवस्था की है, पर मांग बहुत ज्यादा है जिससे लाइसेंस व्यवस्था को लगातार अनदेखा कर अवैध खनन को बढ़ावा मिलता है। बगैर ज्यादा लागत के ये बहुत मुनाफे वाला सौदा है लेकिन अंधाधुंध और अनियंत्रित बालू उत्खनन से नदी के किनारों का घिसाव होता है जिसका परिणाम जैविवविधता के नुकसान के रूप में सामने आता है। किनारे कटने से वहां पनपने वाली वनस्पतियां नष्ट होती हैं और वहां पलने वाले जीव-जंतुओं का प्राकृतिक आवास समाप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप नदी के पानी को धारण करने और नदी को दोबारा जल मुहैया कराने वाली व्यवस्था को हानि पहुंचती है। पर अंधाधुंध विकास के चक्कर में इसकी परवाह किसे है क्योंकि विकास का आकलन आर्थिक नजरिए से किया जाता है। यही कसौटी भी है और यही परिणाम भी। उपभोक्तावाद ने हमें इतना अधीर कर दिया है कि विकास का मापदंड सिर्फ भौतिकवादी चीजें और पैसा ही रह गया है। पक्के निर्माण के बढ़ते चलन और प्रकृति प्रदत्त चीजों पर निर्भरता कम होने का परिणाम है बढ़ता शहरीकरण। आज गांव सिमट रहे हैं और शहर भर रहे हैं। चूंकि गांवों में अभी भी आधारभूत ढांचे का अभाव है इसलिए आर्थिक रूप से थोड़ा-बहुत हर ग्रामीण शहर में बसने के सपने देखता है या शहर की तरह गांव में पक्का घर का निर्माण चाहता है। और यह प्रक्रिया आवास निर्माण उद्योग में क्रांति ला रही है और पक्के निर्माण विकसित होने की निशानी माने जा रहे हैं। देश की तरक्की के लिए विकास जरूरी है पर अनियोजित विकास, समस्याएं ही बढ़ाएगा जिसकी कीमत आज नहीं तो कल हम सबको चुकानी ही पड़ेगी। 2009 में निर्माण उद्योग ने देश के सकल घरेलू उत्पाद में 8.9 प्रतिशत का योगदान दिया, जो 2005 के 7.4 प्रतिशत से ज्यादा है। योजना आयोग के अनुसार अगर देश को लगातार बढते रहना है तो 31 मार्च 2017 को खत्म होने वाले वित्त वर्ष में अवसंरचना क्षेत्र में निवेश को जीडीपी का दस प्रतिशत करना होगा, जो पहले पांच साल के आठ प्रतिशत से ऊपर होगा। भारत भले ही गांवों का देश हो, पर आज पूरे देश में शहरीकरण की बयार बह रही है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक कुल 121 करोड़ की आबादी में से 37.71 करोड़ लोग शहरो में रहते हैं। भविष्य में इस तस्वीर की बहुत तेजी से बदलने की संभावना है। अनुमान के मुताबिक शहरीकरण की वर्तमान दर 31.1 प्रतिशत है जो 2030 तक चालीस प्रतिशत हो जाएगी। बढ़ता शहरीकरण रीयल एस्टेट और आवास जैसे क्षेत्रों में मांग बढ़ा रहा है। आंकड़े के अनुसार पिछले दस सालों में आवास क्षेत्र में बत्तीस प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है। जैसे- जैसे भारत का शहरीकरण बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे मकानों वाली भूमि का आकार बढ़ता जाएगा। यह 2005 के आठ अरब वर्ग मीटर से बढ़कर 2030 तक 41 अरब वर्ग मीटर तक फैल सकता है। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए अगले पांच सालों में एक ट्रिलियन डॉलर सार्वजनिक और निजी निवेश की जरूरत होगी। यह निवेश सड़कों, विमानपत्तन और नौकरियों में होगा। अगर ये अनुमानित निवेश हो जाता है, तो बालू जैसे अवसंरचना में लगने वाले कच्चे माल की मांग तीन गुना तक बढ़ जाएगी और बालू आपूर्तिकर्ताओं पर बेतहाशा दबाव बढ़ेगा और ये दबाव कहीं न कहीं अवैध बालू खनन को बढ़ावा देगा। बात जब निर्माण की होती है तब हम सीमेंट के बारे में सोचते हैं। लेकिन सीमेंट तो मात्र जोड़ने वाला एक पदार्थ है, निर्माण का मुख्य अवयव है बालू और पत्थर या ईट। बालू का कोई और सस्ता सुलभ विकल्प न होने का कारण उसका अवैध खनन होता है जिसकी कीमत हमारी नदियां चुकाती हैं। उत्तराखंड हादसा हुए अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता जिसने हमें चेताया। पर इस चेतावनी को समझने के लिए हजारों लोगों को अपनी जान देनी पड़ी, सैकड़ों घायल हुए और बेघर भी। बालू का अवैध खनन मैदानी क्षेत्रों के पर्यावरण को कितनी बुरी तरह प्रभावित कर रहा है इसका वास्तविक आकलन होना अभी बाकी है, पर हम जिस तरह अपने पर्यावरण से खेल रहे हैं वह वास्तव में एक खतरनाक खेल है। कानून में बड़े खनिजों जैसे कोयले, हीरे अथवा सोने के विपरीत रेत को ‘लघु खनिज’ कहा जाता है। कानूनन पांच हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में खनन लीज के लिए पर्यावरण संबंधी अनुमति लेना आवश्यक है। हालांकि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने अपने दिए एक आदेश में अब पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्र में भी खनन को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय या संबंधित राज्य के पर्यावरण प्रभाव आंकलन प्राधिकरण से अनुमति को अनिवार्य कर दिया है। खान और खिनज (विकास और नियामक) एक्ट 1957 (मई 2012 में संशोधित) के मुताबिक रेत खनन करने वालों को राज्य के प्राधिकारियों से एक लाइसेंस लेना होता है और बालू की मात्रा के मुताबिक शुल्क देना होता है। यह बिक्री दाम का करीब आठ प्रतिशत हो सकता है। बगैर अनुमति बालू खोदने की सजा दो साल तक की जेल या 25 हजार रुपए का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। अवैध रेत खनन को रोकने को लेकर समस्या यह है कि निर्माण में बालू के ज्यादा विकल्प नहीं हैं और जो विकल्प हैं भी वे बालू के मुकाबले महंगे हैं। पर्यावरण जागरूकता के अभाव में और ‘जरा-सा बालू निकालने से नदी कौन-सी सूख जाएगी’ वाली मानसिकता नदियों के प्रवाह तंत्र को प्रभावित करके पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न कर रही है। अब समय आ गया है कि पर्यावरण की दृष्टि के अनुकूल बालू का कोई ऐसा विकल्प ढूंढा जाए जिससे अवैध बालू खनन पर रोक लगे और अवैध बालू जैसे लघु खनिजों से संबंधित कानूनों को और कड़ा किया जाए। हमें अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों से सबक लेना होगा जिन्होंने समय रहते अपने पर्यावरण संबंधी कानूनों को कड़ा किया और यह भी सुनिश्चित किया कि इन कानूनों का कड़ाई से पालन हो।

    राष्ट्रीय सहारा में 30/09/13 को प्रकाशित 

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