Friday, July 18, 2008

दर्द से रिश्ता बनाती फिल्में

मेरे जैसी पीढी के लोगों को बचपने से एक बात मुगली घुट्टी की तरह पिलाई गयी है कि फिल्में देखना बुरी बात है फ़िल्म देखने से आप बिगड़ जायेंगे . फिल्में कोरी फंतासी दिखाती हैं और रियलिटी से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता. फिल्मों के कथानक चाहे जितने ही काल्पनिक क्यों न हों वे समय और समाज से कटे हुए नहीं रह सकते सिनेमा ने हमेशा समाज को आइना दिखाया है, और बताया है सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं अपितु एक संसार है जो जीवन के हर एक भाग को छूता ही नहीं बल्कि प्रभावित भी करता है .उनका प्रस्तुतीकरण भले ही काल्पनिक हो लेकिन प्रॉब्लम अपने टाइम की ही होती हैं जैसे लोगों को फिल्में देखने का रोग होता है वैसे ही हिन्दी फिल्मों ने समय समय पर विभिन्न रोगों को कहानी का आधार बनाया है और दर्शकों को बताने की कोशिश की है की ये रोग क्या हैं ?भले ही ये बात आपको आश्चर्य जनक लगे लेकिन फिल्में समय से निरपेक्ष नहीं रह सकती जो भी समाज में है वो फिल्में जरूर दिखाती है.बात शुरू करते हैं १९५३ में बनी फ़िल्म आह से, उस वक़्त तपेदिक या टीबी एक लाइलाज रोग था नायक राजकपूर टीबी का शिकार होता है लेकिन नायिका नर्गिस तमाम सामाजिक प्रतिरोधों के बावजूद नायक का साथ देने का फ़ैसला करती है .खामोशी फ़िल्म मानसिक रोग की समस्या को दिखाती है .हिन्दी सिनेमा के इतिहास मे जिस रोग को सबसे ज्यादा बार दिखाया गया है वह है कैंसर आनंद ,सफर , मिली दर्द का रिश्ता ,वक्त रेस अगेंस्ट टाइम सभी फिल्मों के कथानक का आधार कैंसर ही था कमजोर ह्रदय की बीमारी पर मशहूर फ़िल्म कल हो न हो या यादाश्त जाने की बीमारी पर बनी फ़िल्म सदमा में श्रीदेवी और कमल हसन के भाव प्रवण अभिनय को कौन भूल सकता है जल्दी ही प्रर्दशित हुई फ़िल्म तारे जमीन पर दिस्क्लेसिया बीमारी की प्रॉब्लम से जूझ रहे पेरेंट्स के लिए उम्मीद की एक नयी किरण लेकर आयी है इसी कड़ी में स्जोफ्रिनिया रोग पर आधारित फ़िल्म यु मी और हम का नाम लिया जा सकता है . अंधेपॅन की समस्या रोग है या विकलांगता यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन हमारे फिल्मकारों ने इस समस्या को बड़े ही सार्थक तरीके से सिनेमा के परदे पर उतारा है.
अंधेपन की समस्या पर बनी फिल्मों में दोस्ती , मेरे जीवन साथी , जुर्माना, स्पर्श, ब्लैक , आँखें (नयी ), परवरिश आदि. प्रमुख हैं . ऐड्स रोग पर बनी फ़िल्म फ़िर मिलेंगे और माय ब्रदर निखिल ने जिस तरह रोग के बारे में दर्शकों को जागरूक किया है वो सराहनीय है . अगर इन फिल्मों के टाइम पीरिअड पर गौर करें तो साफ पता चलेगा की जिस टाइम पर समाज जिस रोग का जायदा शिकार हो रहा था फिल्मों की कहानियो में वैसे ही रोग शामिल हो रहे थे . फिल्मों में रोगी का चित्रण वास्तविक रोगियों में एक आशा का संचार करता है जो किसी भी गंभीर रोग से पीडित व्यक्ति के लिए बहुत जरुरी है उसे जीने की शक्ति और सकरात्मक उर्जा मिलती है. यानि लिव लाइफ किंग साइज़ हिन्दी फिल्मों का एक मशहूर डायलोग है इसे दवा की नहीं दुवा की जरुरत है ऐसी फिल्में वाकई रोगियों के लिए दुवा का काम करती है. ये फिल्मों का रोग है या रोग पर बनती फिल्में इसका आंकलन किया जाना बाकी है लेकिन जो लोग हिन्दी फिल्मों को निम्न स्तर का मानते हैं उनेह यह समझना जरुरी है की फिल्में पैसा कमाने का जरिए हो सकती हैं लेकिन फिल्मकारों को अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का एहसास है और जिसका रिफ्लेक्शन इन रोगों पर बनी फिल्मों में दीखता है .हमें यह नहीं भूलना चाहिए की भारत एक बड़ी जनसख्या वाला देश है जहाँ स्वास्थय जागरूकता के नाम पर सरकार ने भले ही अरबों खर्च कर दिए हों लेकिन अभी भी पल्स पोलियो जागरूकता अभियान के लिए अमिताभ बच्चन , शाहरुख़ खान और आमिर खान जैसे फिल्मी सितारों की मदद लेनी पड़ती है . ये एक्साम्पल है आम जनता का फिल्मों पर भरोसे का हर मीडिया की तरह फ़िल्म मीडिया की भी अपनी सीमायें हैं जिसमे व्यवसाय भी एक बड़ा करक है लेकिन रोगों पर बनने वाली फिल्मों की कम संख्या के लिए हम फिल्मकारों को दोष नहीं दे सकते हैल्थ आज भी एक आम आदमी की प्राथमिकता में बहुत नीचे है और शायद यही कारण है कि रोगों और रोगियों को ध्यान में रखते हुए ऐसी फिल्में कम बनती हैं. इसके बावजूद रोगों के बारे में जागरूकता फैलाने में फिल्मों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है.
१८ जुलाई 2008 को आई नेक्स्ट में प्रकाशित

Wednesday, July 2, 2008

समझ से सब संभव है

भारत में महिलाओं की स्थिति की बात की जाती है तो तुंरत उन्हें देवी का रूप मानकर एक आइडियल इमेज में बाँध दिया जाता है आदर्श माता , आदर्श पत्नी ,आदर्श बहू और न जाने क्या क्या गोया वो एक इंसान न हो कर एक मूर्ति हो जाती है और इसी सांचे में हमारा समाज एक महिला को देखना चाहता है. कोई भी महिला इस सांचे से बाहर जाती है तो उसे न जाने किन किन संबोधनों से नवाजा जाता है पिछले दिनों इस बात पर जोरदार चर्चा चली कि आज कल महिलाएं यौन स्वेच्छाचारिता का शिकार हैं और इनमें बड़ी भूमिका टीवी सीरियलो की है जिनमें विवाहेत्तर सम्बन्ध खूब दिखाए जा रहे हैं. जिनका समाज पर बुरा असर पड़ रहा है .पुरषों के विवाहेत्तर सम्बन्ध समाज आसानी से पचा लेता है किंतु महिलाओं के बारे में उसके अलग मानदंड होते हैं. जैविक रूप से दोनों ही मानव हैं.
किंतु समाज ने दोनों के लिए अलग अलग दायरे निश्चित कर दिए हैं महिलाओं की दशा सुधारने के लिए ये माना जाता है कि उन्हे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया जाना चाहिए लेकिन जब ये महिलाएं आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होकर अपने जीवन के फैसले ख़ुद लेना शुरू कर देती हैं जिनमें जीवन साथी के चुनाव से लेकर यौन आनंद के तरीके तक सभी शामिल हैं तब महिलाओं के बारे में तरह तरह के सवाल उठाये जाने लगते हैं.महिलाओं को आगे बढाया जा रहा है लेकिन ऐसा करना समय की मांग है उदारी करण के इस युग में जहाँ आर्थिक विकास सफल होने का मुख्य आधार है समाज की आधी आबादी को घरों में बंद रखकर विकसित नही हुआ जा सकता किंतु उन्हे कितना आगे बढ़ना है और कैसे इसका फ़ैसला पुरूष ही कर रहे हैं यौन स्वच्छंदता के बारे में जितने भी विचार मानक हैं वो पुरूष मानसिकता से ग्रस्त हैं कोई महिला अपना यौन व्यवहार कैसे निर्धारित करेगी यह अभी भी उसके हाँथ में नहीं है खुलापन हमारे दिमाग में नहीं आ रहा है हम ये मान ही नहीं पाते की महिलाएं भी भावनाएं रखती हैं .एक तरफा प्यार में होने वाली दुर्घटनाओं का ज्यादा शिकार महिलाएं ही होती हैं क्यों ? क्योंकि वे अपनी यौन इच्छा का खुले आम इज़हार कर देती हैं .पुरूष ठुकराया ज़ाना या हारना नहीं चाहते हैं .
प्रश्न यह उठता है कि महिलाओं का यौन आचरण निर्धारित करने के मामले में पुरूष मानसिकता कब तक हावी रहेगी और ये स्थिति समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करती है यह कैसे सम्भव है कि महिलाओं का कोई कार्य समाज के लिए नुकसानदायक हो किंतु पुरुषों द्वारा किया गया वही कार्य समाज आसानी से पचा लेता है . किसी भी समाज के विकास के लिए महिलाओं और पुरुषों का आर्थिक , सामाजिक एवं मानसिक रूप से बेहतर होना जरूरी है किंतु बेहतरी के ये पैमाने लिंगभेद के चश्मे से नहीं देखे जाने चाहिए. महिलाओं द्वारा किया गया कोई कार्य अगर समाज के लिए सही नहीं है तो पुरुषों के उन कार्यों को भी ग़लत माना जाना चाहिए .यह कहना कि महिलाएं ऐसा कर रही हैं तो समाज में समस्या हो रही है उचित नहीं होगा .समाज में पैदा होने वाली कोई भी कुंठा समान रूप से पुरुषों और महिलाओं के लिए नुक्सान दायक होगी. हालाँकि स्तिथियाँ बदल रही हैं लेकिन उनकी गति बहुत धीमी है ये कुछ इसी तरह का मामला है की कुछ लाख शहरी घरों के टी वी केबल कनेक्शन से निर्धारित होने वाली टी आर पी किसी टी वी कार्यकर्म की लोकप्रियता को पूरे देश के सन्दर्भ में बता दिया जाता है उसी तरह कुछ शहरों में होने वाला बदलाव यह नहीं इंगित करता की महिलाओं के यौन व्यवहार को लेकर हमारा नजरिया बदल गया है ग्लोबलाइजेसन के दौर में हम दोहरे मापदंड ले कर समाज को आगे नहीं बढ़ा सकते. महिलाएं भी हाड मांस का पुतला हैं और उनकी भी अपनी भावनाएं संवेदनाएं हैं ऐसे में उनसे हर जगह पूर्ण आदर्श की उम्मीद करना उचित नहीं होगा वक्त की मांग है की महिलाओं को मानववादी नजरिये से देखा जाए और उनके कार्यों का आंकलन करते वक्त ये न भूला जाए की उनके सीने में भी एक दिल है जो अपने तरीके से जीना चाहता है आगे बढ़ना चाहता है

२ जुलाई २००८ को  आई नेक्स्ट में प्रकाशित

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